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(300) : नंदनवन
से समर्थित नहीं होती । उसके शिष्य गुणभद्र एवं वसुनन्दि आदि उत्तरवर्ती आचार्य भी उसका समर्थन नहीं करते 126
भौतिक जगत् के वर्णन में विसंगतियाँ : वर्तमान काल
भौतिक जगत् के अन्तर्गत जीवादि छह द्रव्यों का वर्णन समाहित है। उमास्वाति ने "उपयोगो लक्षणं" कहकर जीव को परिभाषित किया है। पर शास्त्रों के अनुसार, उपयोग की परिभाषा में ज्ञान, दर्शन के साथ-साथ सुख और वीर्य का भी उत्तरकाल में समावेश किया गया। अनेक ग्रन्थों में उपयोग और चेतना शब्दों को पृथक्-पृथक् भी बताया गया है। इसका समाधान क्षमता एवं क्रियात्मक चेतना के रूप से किया जाता है। इसी प्रकार, जीवोत्पत्ति के विषय में भी विकलेन्द्रिय जीवों तक की सम्मूर्च्छनता विचारणीय है जब कि भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर ने कल्पसूत्र में मक्खी, मकड़ी, पिपीलिका, खटमल आदि को अण्डज बताया है। निश्चय - व्यवहार की चर्चा से यह प्रयोग - सापेक्ष प्रश्न समाधेय नहीं दिखता ।
अजीव को 'पुद्गल' शब्द से अभिलक्षणित करने की सूक्ष्मता के बावजूद भी उसके भेद - प्रभेदों का चक्षु की स्थूलग्राहयता तथा अन्य इन्द्रियों की सूक्ष्मग्राहिता के आधार पर वर्णन आज की दृष्टि से कुछ असंगत-सा लगता है । पदार्थ के अणु - स्कन्ध रूपों की या वर्गणाओं की चर्चा कुन्दकुन्द युग से पूर्व की है । पर कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम चक्षु - दृश्यता के आधार पर स्कंधों के छह भेद किये हैं। उन्होंने आकार की स्थूलता को दृश्य माना और चक्षुषा - अदृश्य पदार्थों को सूक्ष्म माना । इस प्रकार, ऊष्मा, प्रकाश आदि ऊर्जायें तृतीय कोटि (स्थूल सूक्ष्म) और वायु आदि गैस, गन्ध व रसवान् पदार्थ (सूक्ष्म - स्थूल) चतुर्थ कोटि (सूक्ष्मतर) में आ गये। दुर्भाग्य से ध्वनि ऊर्जा कर्णगोचर होने से प्रकाश आदि से सूक्ष्मतर हो गई ।
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धवला - वर्णित वर्गणा - क्रम वर्धमान स्थूलता पर आधारित लगता है पर उसका अणु - आहार- तैजस - भाषा - मन- कार्मण शरीर- प्रत्येक शरीर - बादर निगोद - सूक्ष्म निगोद-वर्गणाओं का क्रम किंचित् विसंगत लगता है । तैजस शरीर से कार्मण शरीर सूक्ष्मतर बताया गया है, तैजस ( ऊर्जायें) एवं ध्वनि आहार - अणुओं से सूक्ष्मतर होती है, सूक्ष्म निगोद बादर निगोद से सूक्ष्मतर होना चाहिये तथा मन यदि द्रव्यमन ( मस्तिष्क) है, तो वह प्रत्येक शरीर से भी स्थूलतर होता है ।
जैनों का परमाणुओं के बन्ध सम्बन्धी नियमों का विद्युत गुणों के आधार पर विवरण अभूतपूर्व है । पर यह विवरण अक्रिय गैसों के यौगिकों के निर्माण, उपसह-संयोजी यौगिकों तथा संकुल लवणों के सम्भवन से संशोधनीय हो गया है। शास्त्री ने इन नियमों की शास्त्रीय व्याख्या में भी टीकाकारकृत अन्तर बताया है। अनेक विद्वान् विभिन्न व्याख्याओं से इन
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