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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन : (293)
11- दशपूर्वधारी 5- एकादशांगधारी 4- 10, 9, 8 अंगधारी 4- एकांगधारी
183 वर्ष 220 वर्ष
183 वर्ष 123 वर्ष
97 वर्ष
118
___118 वर्ष (पांच एकांगधारी)
683
683
मूलाचार के अनुसार, आचार्य शिष्यानुग्रह, धर्म एवं मर्यादाओं का उपदेश, संघ-प्रवर्तन एवं गण-परिरक्षण का कार्य करते हैं । अन्तिम दो कार्यों के लिये ऐतिहासिक एवं जीवन परम्परा का ग्रथन आवश्यक है । पर प्रारम्भ के प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों के जीवनवृत्त अनुमानतः ही निष्कर्षित हैं | आत्म-हितैषियों के लिये इसका महत्त्व न भी माना जाये, तो भी परम्परा या ज्ञानविकास की क्रमिक धारा और उसके तुलनात्मक अध्ययन के लिये यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन भारतीय संस्कृति की इस इतिहास-निरपेक्षता की वृत्ति को गुण माना जाय या दोष-यह विचारणीय है। एक ओर हमें 'अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित्' की सूक्ति पढ़ाई जाती है, दूसरी ओर हमें ऐसे ही सभी आचार्यों को प्रमाण मानने की धारणा दी जाती है । यह और ऐसी ही अन्य परस्पर विरोधी मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है । उदाहरणार्थ, शास्त्री द्वारा समीक्षित विभिन्न आचार्यों के काल-विचार के आधार पर प्रायः सभी प्राचीन आचार्य समसामयिक सिद्ध होते हैं। 1. गुणधर
114 ई.पू. 2. धरसेन
50-100 ई. प्रथम सदी सौराष्ट्र, महाराष्ट्र 3. पुष्पदंत 60-106 ई.
आध्र, महाराष्ट्र 4. भूतबलि
76-136 ई. 1-2 सदी 5. कुन्दकुन्द
81-165 ई. 1-2 सदी 6. उमास्वाति
100-180 ई.
2 सदी 7. बट्टकेर
प्रथम सदी 8. शिवार्य
प्रथम सदी मथुरा 9.स्वामिकुमार (कार्तिकेय) -
2-3 री सदी गुजरात इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबलि का पूर्वापर और समय तो पर्याप्त यथार्थता से अनुमानित होता है। पर कुन्दकुन्द और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त चर्चायें मिलती हैं। यदि इन्हें महावीर के 683 वर्ष बाद ही मानें, तो इनमें से कोई भी आचार्य दूसरी सदी का पूर्ववर्ती नहीं हो सकता (683-527=156 ई.) । इन्हें गुरु-शिष्य मानने में भी अनेक बाधक तर्क हैं : (1) उमास्वाति की बारह भावनाओं के नाम व क्रम कुन्दकुन्द से भिन्न हैं। (2) उमास्वाति ने बट्टकेर के पंचाचार और शिवार्य के चतुराचार को सम्यक
रत्नत्रय में परिवर्धित किया। उन्होंने तप और वीर्य को चारित्र में ही अन्तर्भूत माना।
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