________________
(288) :
नंदनवन
होती है, पर उसका समुचित रूप में संचारण न केवल शोधकों के लिये ही उपयोगी होता है, अपितु यह पूर्वकृत शोध की जानकारी देकर उससे आगे बढ़ने तथा नये क्षितिजों का संकेत देने में भी सहायक होता है। इस दिशा में शोधों पर आधारित शोध-पत्रों एवं शोध-प्रबन्धों का प्रकाशन आवश्यक है। इन दोनों ही दिशाओं में जैन-विद्यायें अभी काफी पीछे हैं। वैसे तो जैन पत्र-पत्रिकाओं की संख्या, सम्पर्क, 2000 के अनुसार, अर्ध-सहस्र तक पहुंच गई है, पर शोध-पत्रिकायें कम ही हैं। जैन सिद्धांत भास्कर, अनेकान्त, तुलसी प्रज्ञा, अर्हत् वचन, शोधादर्श, जिनमंजरी, श्रमण, प्राकृत विद्या, जैन विद्या, सम्बोधि एवं निग्रंथ के समान पत्रिकायें ही इस कोटि में आती हैं। इनमें प्रायः पत्रिकायें त्रैमासिक हैं और प्रत्येक औसतन 10 लेख प्रकाशित करती हैं। यदि हम औसतन प्रति वर्ष 50 शोध एवं अनेक लघु शोध-निबन्ध मानें, और प्रत्येक में औसतन 3 शोध पत्र की संभावना मान लें, तो प्रायः 200 शोध-पत्र प्रतिवर्ष प्रकाशित होने चाहिये। इसके अतिरिक्त, उपाधि-निरपेक्ष तथा उपाधि-उत्तर शोध को इसमें और समाहित करना चाहिये जो प्रायः इससे दुगुने हो सकते हैं। इस प्रकार- प्रायः 600 वार्षिक शोध-पत्रों के लिये जैन शोध-पत्रिकायें अपर्याप्त हैं। साथ ही, शोध की महत्ता एवं उपयोगिता उससे शीघ्र संप्रसारण में ही है। इस हेतु 'केमिकल एब्स्ट्रेक्ट' के समान जैन शोध निष्कर्ष का प्रयास किया जा सकता है जिसमें शोध-पत्रों एवं शोध लेखों के सार रहें। इस दिशा में एक पत्रिका कुछ कर रही है, पर यह नितान्त अपर्याप्त है। आजकल बहुतेरी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की जैन संस्थायें सामने आ रही हैं। वे इस कार्य को हाथ में ले सकती हैं।
शोध-पत्रों के प्रकाशन के अतिरिक्त, शोध-प्रबन्धों का प्रकाशन भी शोध संचारण का एक उपाय है। लेकिन यह अधिक व्ययसाध्य है। साधु-साध्वियों के शोधों के अतिरिक्त केवल आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग ही इन्हें प्रकाशित करा पाते हैं। फिर भी सारणी 1 से स्पष्ट है कि 1983-93 के दशक में शोध-प्रबन्ध प्रकाशन का प्रतिशत पिछले दशक की 15 प्रतिशत की तुलना में 21.5 प्रतिशत हो गया है। यह उत्साहवर्धक है। अगले दशक में यह और भी बढ़े, ऐसी कामना है। शोधकार्य की जानकारी में शोध सन्दर्भ भी उपयोगी हैं, पर वे प्रकाशित शोधकार्यों का स्थान नहीं ले सकते। जैन विद्याओं में शोध के नये क्षितिज
इस लेख में हमने यथास्थान अनेक क्षेत्रों में शोधकार्य की सम्भावना का उल्लेख किया है। कुछ क्षेत्र फिर भी छूट गये हैं। उदाहरणार्थ, आजकल वास्तु शास्त्र का युग चल रहा है। जैन ग्रन्थों में वास्तु शास्त्र, गृह निर्माण, सैन्यागार निर्माण, नगर एवं मंदिर निर्माण के अनेकविध विवरण मिलते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org