________________
(284) :
नंदनवन
आगम विषयक शोध
आगम सम्बन्धी शोधों में आचारांग के विविध पक्षों ने सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट किया है। उपासकदशा, भगवतीसूत्र, विशेषावश्यक भाष्य और निशीथचूर्णि एवं ऋषिभाषित भी शोध के विषय बने हैं। दिगम्बर साहित्य में मूलाचार, भगवतीआराधना, कुन्दकुन्द साहित्य, अष्टपाहुड़, समंतभद्र साहित्य तथा ज्ञानार्णव ने भी शोधकों का ध्यान आकृष्ट किया है। कुन्दकुन्द साहित्य पर पांच शोधकों ने काम किया है। सर्वाधिक शोधकार्य सर्वमान्य तत्त्वार्थ सूत्र
और उसकी टीकाओं पर (लगभग आठ शोध) हुआ है जिनमें उसके विविध पक्षों का अध्ययन हुआ है। आगम सम्बन्धी शोधकार्य इस दशक में काफी अपूर्ण लगता है। पूरे उपलब्ध ग्यारह अंगों पर अनेक दृष्टियों से शोध होनी चाहिये। दिगम्बर ग्रन्थों--षट्खण्डागम पर अभी तक कोई शोध नहीं हुआ है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा अभी अछूता है। श्रावकाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भी अभी एक खुला विषय है। अब तो अनेक नये विषय भी सामने आ रहे हैं: 1. सिद्ध-शिला का आकार, 2. आर्यिकाओं की समकक्षता, 3. भट्टारक प्रथा, 4. पदमावती आदि का पूजन आदि। प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थों के साथ ऐतिहासिक एवं जैन धर्म सम्वर्धन के परिप्रेक्ष्य में भी इन पर शोध होने चाहिये। जैन न्याय-दर्शन और तुलनात्मक अध्ययन
इन विषयों पर सम्मिलित शोध प्रायः 15-18 प्रतिशत है। इसके अन्तर्गत विभिन्न जैन सिद्धान्तों एवं दार्शनिक मान्यताओं का अध्ययन किया गया है। इनमें द्रव्य (3) जीव, आत्मा (3), कर्म (3), ज्ञान (3) बंध-मोक्ष, निश्चय-व्यवहार, सर्वज्ञता, नास्तिकता, गुणस्थान, लेश्या एवं अतीन्द्रिय ज्ञान, पंचपरमेष्ठि-जैसी दार्शनिक मान्यतायें और नयवाद, अनेकान्तवाद, प्रामाण्यवाद, तर्कशास्त्र, ईश्वरवाद आदि के विषय समाहित हुये हैं। तुलनात्मक अध्ययनों में जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, वेदान्त एवं वेद के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन समाहित है। इनमें पश्चिमी धर्मों (मुख्यतः यहूदी, ईसाई तथा मुस्लिम धर्म) के साथ तुलनात्मक धर्म समाहित नहीं हैं। इन पर शोध अनेक कारणों से अपेक्षित है। इन अध्ययनों से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इनसे प्राचीनतर जैनधर्म क्यों सामान्य जन को आकर्षित कर विश्व के बहुसंख्यक धर्मों में स्थान नहीं प्राप्त कर सका। इस कोटि के अध्ययन में विभिन्न कोटि के साहित्य का भी तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। नीति, आचार और धर्म
आलोच्य दशक में इस कोटि में पूर्व की अपेक्षा कम अनुसन्धान हुये हैं। फिर भी, इसमें योग के विविध पक्षों पर सामान्य और तुलनात्मक अध्ययन अधिक हुये हैं (7)। मंत्रविद्या, ध्यान, अनुप्रेक्षा पर भी शोध हुये हैं। श्रावकाचार एवं मूलाचार ने भी शोधार्थी को आकृष्ट किया है। पंचशील पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org