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मंदिर के पास है, वहां तक गुफा नहीं है, ऐसी परिस्थति में पद्मिनी का चित्र की गुफा बताना व पद्मिनी का चित्र लगाना उचित प्रतीत नहीं होता । इन सभी बिंदुओं के आधार पर श्री सुकोशल मुनि का मंदिर ही कहा जा सकता है।
ऐसा भी उल्लेख है, यहां पर महाराणा तेजसिंह की रानी जयतल्लदेवी ने संवत् 1322 में श्री पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर बनवाया था, वर्तमान में नहीं है। इस मंदिर के ऊपर संभवतः शांतिनाथ भगवान का मंदिर हो । अधिकार (कब्जे) के सम्बन्ध में न्यायालय में वाद चल रहा है। इस मंदिर की देखरेख श्री सात वीस देवरी श्री जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट द्वारा की जाती है ।
वार्षिक ध्वजा माघ सुदी 5 को चढ़ाई जाती है ।
मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
सुकोशल मुनि की जीवनी
अयोध्या नगरी का राजा कीर्तिधर था उसकी पत्नी सहदेवी थी । राजा कीर्तिधर के मन की भावना यह थी कि पुत्र जन्म लेते ही वे चारित्र धर्म अंगीकार करेंगे।
रानी ने पुत्र जन्म दिया, रानी ने एक कुचाल चल कर दासी के द्वारा अज्ञात स्थान पर भेज दिया । जांच करने पर सच्चाई का ज्ञान हुआ । बालक का नाम सुकोशल रखा । धीरे-धीरे रानी का राग पुत्र के प्रति बढ़ता गया और पति के प्रति कम होता गया ।
एक समय आया कि कीर्तिधर ने चारित्र धर्म अंगीकार किया और राज सिंहासन छोड़ निकल गये । कुछ वर्षो के बाद मुनि कीर्तिधर विहार करते हुए अयोध्या आये और रानी सहदेवी ने देखा तो पुत्र सुकोशल को दूर रखा लेकिन होनी को कौन टालता है । सुकोशल को इसका समाचार मिला, वह दौड़कर उपवन में गया जहाँ पर कीर्तिधर मुनि ठहरे हुए थे । सुकोशल पूर्व में ही आत्म कल्याण की ओर सोचता रहा था । राजार्षि के सम्पर्क में आने से भावना सुदृढ़ हो गयी और उन्होंने भी यहीं कहा कि पुत्र जो गर्भावस्था में था, होने पर चारित्र धर्म अंगीकार करेंगें ।
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मुनि बनने के बाद वे घोर तपस्या में लीन रहे और माता सहदेवी का काल होने क्रोधावश के कारण सिंहनी के रूप में उत्पन्न हुए । एक समय जंगल में कीर्तिधर राजार्षि व मुनि सुकोशल काउसग्ग मुद्रा में तपस्या में थे उस समय सिंहनी उधर निकली, पूर्व भव का दृश्य ध्यान में आया। सुकोशल पर दृष्टि पड़ते ही उसकी वैर वृति सजग हो गई और उस पर आक्रमण करके उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर खाया और रक्तपान किया।
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