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मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
जीवनकाल - विक्रम संवत् 757 से 827 के बीच का निर्धारण श्री जिन विजय के आधार पर विक्रम संवत् 834 में हुआ। जैन परम्परा का इतिहास द्वारा त्रिपुटी के अनुसार श्री हरिभद्र सूरि का स्वर्गवास से 585 में हुआ। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि का जीवनकाल 6वीं शताब्दी का निर्धारण होता है। उद्योतनसूरि ने "कुवलयमाला' में आचार्य हरिभद्र सूरि को स्मरण गुरू के रूप में किया है। आचार्य हरिभद्र सूरि षड़ दर्शन के प्रखण्ड विद्वान थे और उन्हें सभी चौदह विद्याओं का ज्ञान था। वे जिन धर्म के विरोधी रहे हैं। उनके शब्दों में हाथी के पैर नीचे कुचल कर मरना स्वीकार था परन्तु जिन्दा रहने के लिए जिन मंदिर में पैर रखना स्वीकार नहीं था। यह उनकी भीषण प्रतिज्ञा थी तथा उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा की थी जो कोई उन्हें शास्त्रों में हरा देगा, उसके शिष्य बन जावेंगे। 2. सा. महत्तरा - जैन साध्वी याकिनी महत्तरा (धर्ममाता) अपने उपाश्रय में
मधुर कण्ठ से स्वाध्याय घोष प्रवाहित गाथा गा रही थी, उसमें "चक्कि दुर्ग" शब्द का अर्थ समझ में नहीं आ रहा था – मस्तिष्क में काफी दबाव डालकर भी सोचा लेकिन सफल नहीं हुए, अन्त में वे साध्वी जी सम्मुख खड़े होकर उन्होंने उद्घोषणा की आप मेरी आज से धर्म माता हैं और उन्हें इस शब्द की जानकारी देवें। साध्वी जी ने कहा साध्वी को यह अधिकार नहीं था अतः आप उनके गुरू श्री जिनभद्रसूरि के पास जाएं वे ही आपको अर्थ बतलावेंगे और उन्होंने पुनः कहा कि आज से उनकी पहचान याकिनी महत्तरासु होगी। इस प्रकार याकिनी महत्तरा धर्म माता कहलाने लगी। श्री जिनभद्र सूरि - आचार्य श्री हरिभद्र सूरि के गुरू थे। श्री जिनदत्त सूरि - ये हरिभद्र सूरि के विद्यादाता थे। जब हरिभद्र सूरि ने "चक्कि दुर्ग' के अर्थ के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यह एक आगम कथा से सम्बन्धित है और उसको पढ़ने के लिए जैन साधु बनना पड़ता है। इसी आधार पर हरिभद्र जी ने कहा कि वे जैन साधु बनने को तैयार हैं, उन्हें वस्त्र दिये जाएं। श्री जिनदत्त सूरि ने उन्हें शुभ मुहूर्त में साधुवेश अर्पण किया और वे जैन मुनि बन गये। शिष्य श्री हंस एवं परमहंस दोनों ही श्री हरिभद्र सूरि के सांसारिक भाणेज थे, दोनों ही विद्वान् थे। वे जैन धर्म के अतिरिक्त बौद्ध धर्म का भी अध्ययन
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