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अध्ययन किया। महाराणा विक्रमादित्य को प्रति बोध कर जैन बनाया। इन्होंने अवन्तिका का त्याग कर मेवाड़ को ही अपनी कर्म भूमि बनाई ।
श्री सिद्धर्षि - 10वीं शताब्दी के महान विद्वान आचार्य थे। ये दुर्ग स्वामी के शिष्य थे, इनके पिता का नाम शुंभकर, माता का नाम लक्ष्मी व पत्नी का नाम धन्या था। ये भीनमाल नगर में रहने वाले थे, इन्होंने दीक्षित गुरू गर्गर्षि था। इन्होंने जैन दर्शन व बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया और इन्होंने पाया कि दोनों धर्म के सिद्धान्त अच्छे हैं, उनको अपने आप में जिसका पालन करना चाहिये। यह सोचकर कभी बौद्ध धर्म के भिक्षु के पास तो कभी जैन आचार्य के पास इस प्रकार 21 बार आने जाने के बाद भी निर्णय नहीं ले पाये तो जैन आचार्य ने श्री हरिभद्र सूरि का ग्रन्थ ललित विरतरावत्रि को पढ़ने को दिया। इसका अध्ययन करने के बाद सभी भ्रांतियां दूर होकर जैन धर्म का चयन किया । इन्होंने कई साहित्यों की रचना की। इनके साहित्य की प्रशंसा हर्मन जेकोबी ने भी अपनी पुस्तक में की।
मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
श्री पुण्य विजय जी ये तपागच्छीय मुनि थे। इनका जन्म वि.स. 1952 कार्तिक शुक्ला 5 को कपड़वंज में हुआ । दीक्षा वि.स. 1965 माह वदि 5 को • श्री चतुर विजय ने प्रदान की । ये प्राचीन भाषा के ज्ञाता थे। इन्होंने कई प्राचीन ग्रन्थों का संशोधन कर ख्याति प्राप्त की। कई ज्ञान भण्डारों की सुव्यवस्था की । इनको आगम प्रभाकर कहा जाता है।
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श्री जिनेश्वर सूरि-ये खरतरगच्छ के संस्थापक थे। इन्होंने संवत् 1073 में पाटण के दुर्लभराज के समय में अन्य धर्माचार्य के साथ शास्त्रार्थ कर खरे उतरे । इनको खरतर की उपाधि प्रदान की । इसलिए खरतरगच्छ कहलाने लगा ।
श्री अभयदेव सूरि- ये चेत्यपरिपाटी या चन्द्रकुलीन के महान् आचार्य थे। इन्होंने आगम के 11 अंगो में से अंतिम 9 की टीका लिखी और नवांगी टीकाकार कहलाए तथा सिद्धसेन दिवाकर की सम्मति से गाथा 167 से अधिक 25000 श्लोक तक संस्कृत में टीका बनाई । शौध का विषय है ।
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