________________
मेरा मंदर पुरारण
[
पुण्य
भद्राचार्य ने भी अज्ञानी गृहस्थ को 'की ओर परिणमन करने के लिये प्रथमानुयोग का ही कथन किया है । यह प्रथमानुयोग सम्यक्ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है । यह प्रथमानुयोग कैसा है : - इस सम्बन्ध में श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी लोक नं० ४३ में कहा है
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधि-निधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥
इसकी टीका करते हुए प० सदासुखजी लिखते हैं
अर्थ - " सम्यक् ज्ञान है सो प्रथमानुगोग नै जाने है। कैसा है प्रथमानुयोग ? अर्थ जे धर्म अर्थ काम मोक्ष रूप चार पुरुषार्थ जिनका है कथन जार्म, बहुरि चरित कहिये एक पुरुष के श्राश्रय कथा जामे, बहुरि त्रिपष्ठिशलाका पुरुपनि की कथनी का सम्बन्ध का प्ररूपक यातें पुराण है । बहुरि बोधि समाधि को निधान है जो सम्यग्दर्शनादिक नाहीं प्राप्त भये तिनकी प्राप्ति होना सो वोधि है और प्राप्त भये जिन सम्यक् दर्शनादिकनि की जो परिपूर्णता सो समाधि 1. वही प्रथमानुयोग रत्नत्रय की प्राप्ति को र परिपूर्णता को निधान है, उत्पत्ति को स्थान है, र पुण्य होने का काररण है, नाते पुण्य है । ऐसा प्रथमानुयोग कृतं सम्यक् ज्ञान ही जाने है ।"
इस कारण यह प्रथमानुयोग पुण्य बंध का कारण है और प्रथम अवस्था में यह कारण रूप साधन है । इसलिए श्री वामन मुनि ने अज्ञानी जीवों को पुण्य रूप में परिरणत करने के लिये पुण्य पुरुषों की पुनीत कथाओं का विवेचन किया है ।
मलै पोल निड् वैयिल्-वन् परिण मारि वंदाल् । निल पे लिल्ला निलयिन् मुन्नन्नादु निड्रेन् ॥ कलैया निरैदार कडंदं कवि मा कडलिन् । निर्लयाटु मिन्ना दिदु नींदुदर्कु मेळ देन् ॥३॥
अर्थ - प्रीष्मकाल, वर्षाकाल, शीतकाल ऐसे ये तीन काल प्रपने को प्राप्त होने पर भी पर्वत के समान अचल रह कर अपने आत्म स्वरूप में स्थिर रहने वाले, उसी स्थान को छोड़ कर अन्य स्थान में नहीं जाने वाले, अथवा संघ के समूह का अनुभव न करने वाले मनुष्य अत्यंत दुर्लभ हैं। इसके द्वारा ग्रात्म साधन के लिये तपश्चरण करके श्रात्मानुभव अभी तक नहीं करने वाले, दुर्द्धर तपस्या का अनुभव न करने वाले, तपश्चरण के द्वारा अत्यंत दुर्लभ ऐसे आत्म स्वरूप का अनुभव न करने वाले मैं वामन मुनि नवीन दीक्षित होकर सम्पूर्ण शास्त्र समुद्र के पारंगत, ऐसे श्रुत केवली के द्वारा ही उसका भन्त न लगने वाले ऐसे शास्त्र समुद्र को मैं पूर्ण विचार न करके शास्त्र रूपी समुद्र से तिरकर पार होंगे ऐसा मन में विचार करके इस काव्य रचना को करने के लिये कटिबद्ध हुआ हूँ ।
Jain Education International
भावार्थ- - इसका सारांश यह है कि वामन मुनि के नवीन दीक्षित होते ही इस काव्य की रचना करने की भावना उत्पन्न हुई। ऐसा इसका प्राशय है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org