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गाथा १-५]
क्षपणासार
मोहलपणा है, क्योंकि दर्शनमोहका क्षय किये बिना क्षपकश्रेणीका आरोहण असम्भव है । दर्शनमोहकी क्षपणा भी अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना पुरस्सरा है अर्थात् अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना हो चुकनेपर ही दर्शनमोहकी क्षपणा सम्भव है, अन्यथा दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ हो नहीं सकती। इसका कथन दर्शनमोहक्षपणाधिकार मे हो चुका है ग्रन्थविस्तारके भयसे उनका यहां पुन: कथन नहीं किया गया है। अनन्तानुबन्धीकी विसयोजनासम्बन्धी और दर्शनमोहक्षपणासम्बन्धी क्रियाविशेष समाप्त हो जानेपर क्षपकश्रेणिपर आरोहणके लिए प्रमत्त-अप्रमत्तगुणस्थानमें साता व असाताबन्धके प्रावर्त (परिवर्तन) सहस्रोबार करके प्रमत्त अप्रमत्तगुणस्थानमे सहस्रोबार गमनागमन करके क्षपकश्रेणिकी प्रायोग्यविशुद्धिसे विशुद्ध होकर क्षपश्रेणि चढनेवालेके पूर्व में अध:करणादि तीन विशुद्धपरिणामकालोकी एक पक्ति होती है, क्योकि इनके बिना उपशमन व क्षपणक्रियाका होना असम्भव है। अध करणादि तीन विशुद्धपरिणामकालोमे प्रथम अधःप्रवृत्तकरणकाल, द्वितीय अपूर्वकरणकाल और तृतीय अनिवृत्तिकरणकाल है। 'इन तीनोमे से प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है । ये तीनोकाल परस्पर सबधित है और ऊर्ध्वरूप एक श्रेण्याकारसे विरचित हैं । दर्शनमोहकी उपशामनामे अधःप्रवृत्तकरण आदिका लक्षण तथा तत्सम्बन्धी क्रियाओंका कथन किया गया है वैसी ही प्ररूपणा यहा भी करना चाहिए, क्योकि दोनोमे कोई विशेषता नहीं है, किन्तु क्षपकश्रेणिसे पूर्व उपशामना आदिमें होनेवाले अध प्रवृत्तकरण आदिके कालसे क्षपकश्रेणि सम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरणआदिका काल असख्यातगुणा हीन है, क्योकि खड्गधाराके समान शुद्धतर परिणामोमें चिरकालतक ठहरना सम्भव नही है । उपशामनादिसम्बन्धी परिणामोसे क्षपकश्रेणिसम्बन्धी परिणाम अनन्त गुणे विशुद्ध पाए जाते है । सातिशय अप्रमत्त नामक सप्तमगुणस्थान में क्षपकश्रेणिसम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरण होता है।
१. एदासिं च पादेक्कमतोमुहत्तपमाणावच्छिण्णाण समयभावेणेगसेढीए विरइदाणं लक्खणविहाणं
जहा दसणमोहोवसामणाए अधापवत्तादिकरणाणि णिरुभियूण परूविद तहा एत्थ वि परूवियव्व, विसेसाभावादो । णवरि हेट्ठिमासेसकिरियासु पडिबद्धअधापवत्तादिकरणद्धाहितो एत्थतणअधापवत्तकरणादिअद्धाओ असखेज्जगुणहीणाओ सुद्धयरपरिणामेसु खग्गधारासरिसेसु चिर
कालमवट्ठाणासंभवादो। (जयधवल मूल पृ० १६३६) । २. किन्तु ध० पु० १२ पृ० ७८ पर गाथा न० ८ में यह काल सख्यातगुणा हीन कहा है।