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क्षपणासार
[ गाथा १-५ 'पल्लस्स संखभागं मुहत्तअंतेण ओप्तरदि बंधे । संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्हि ओसरणा ॥४॥३६५॥ 'आदिमकरणद्धाए पढमदिदिबंधदो दु चरिमम्हि । संखेज्जगुणविहीणो ठिदिबंधो होदि णियमेण ॥५॥३६६॥
अर्थः-अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप तीनकरण; बंधापसरण और सत्त्वापसरण ये दो अपसरण तथा क्रमकरण, आठ (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण) कषाय और १६ प्रकृतियोको क्षपणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, सक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, कृष्टि अनुभवन इसप्रकार चारित्रमोहकी क्षपणामे अधिकार जानना ॥१॥
पहले अधःप्रवृत्तकरणमें गुणश्रेणि, गुणसंक्रम, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात सम्भव नही है अत. जीव समय-समयप्रति अनन्तगुणे क्रमसहित विशुद्धताकी वृद्धिद्वारा वर्धमान होता है ।।२।।
जो जीव समय-समयप्रति प्रशस्तप्रकृतियोका अनन्तगुणेक्रम से चतु.स्थानिक अनुभागबन्ध करता है और अप्रशस्तप्रकृतियोका अनन्तवे भागरूप क्रमसे विस्थानिक बन्ध करता है ॥३॥
पूर्वस्थितिबन्धमेसे पल्यका असंख्यातवा भागमात्र स्थितिबन्ध घटाते हुए एक अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त प्रतिसमय समानंबन्ध होता है सो यह एक स्थितिबन्धापसरण हुआ ऐसे सख्यातहजार स्थितिबधापसरण अधःप्रवृत्तकरणमे होते हैं ।।४।।
इसप्रकार स्थितिबंधापसरण होनेसे अधःप्रवृत्तकरणकालमें प्रथमसमयसम्बन्धी जो स्थितिबन्ध है उससे सख्यातगुणा हीन स्थितिबन्ध अन्तसमयमे नियमसे होता है । ऐसे इस अध.प्रवृत्तकरणमे आवश्यक होते हैं ।।५।।
विशेषार्थः कषायोपशामना (चारित्रमोहोपशामना) अधिकारके पश्चात् चारित्रमोहक्षपणाधिकार प्रारम्भ होता है । दर्शनमोहक्षपणाकी अविनाभावी यह चारित्र
१. ल० सार गाथा ३६ के समान । २. देखो ल० सार गाथा ४० । तथा घ० पु. ६ पृ० २२३ ।