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उत्पत्ति केवल उसकी स्वत सिद्ध स्वभावभूत नित्य उपादान शक्ति और कार्योत्पत्तिक्षण से अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप अनित्य उपादानशक्ति के बल पर ही होती है।
ख-अनित्य उपादान शक्ति का अपर नाम समर्थउपादान है। ये समर्थ उपादान प्रत्येक वस्तु मे उतने ही माने जा सकते है जितने काल के त्रैकालिक समय है।
ग-प्रत्येक वस्तु की अमुक पर्याय के अनन्तर ही अमुक पर्याय उत्पन्न होती है और वह नियम से होती है।
घ-प्रत्येक वस्तु की प्रत्येक पर्याय की उत्पत्ति का समय नियत है।
इसका फलितार्थ यह हुआ कि प्रत्येक वस्तु की निश्चित त्रैकालिक पर्यायो मे से प्रत्येक पर्याय नियत क्रम से अपने-अपने काल में अपने आप कार्यरूपता ( अव्यक्तरूपता से व्यक्तरूपता) को प्राप्त होकर अर्थात् भविष्यद् पता से वर्तमान रूपता को प्राप्त होकर विनष्ट (भूतरूपता को प्राप्त होती जा रही है। उपर्युक्त सपूर्ण कथन की पुष्टि प० फूलचन्द्र के निम्नलिखित कथनो से होती है । यथा
. इस प्रकार इतने विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक उपादान अपनी-अपनी स्वतत्र योग्यता सम्पन्न होता है और उसके अनुसार प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति होती है तथा इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रत्येक समय का उपादान पृथक्पृथक् है इसलिये उनसे क्रमश जो-जो पर्याय उत्पन्न होती है वे अपने-अपने काल मे नियत है । वे अपने-अपने समय मे ही होती है आगे पीछे नहीं होती।" ( जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ १६२ )
"स्वभाव और समर्थ उपादान मे फर्क है । स्वभाव सार्वकालिक होता है । इसी का दूसरा नाम नित्य उपादान है और