________________
२८०
दूसरी बात यह है कि "उपादान की सम्हाल करनी चाहिये" इस वाक्य का अर्थ परावलम्बनवृत्ति और प्रवृत्ति को समाप्त करके स्वावलम्बनवृत्ति और प्रवृत्ति को अपनाने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? लेकिन इस अर्थ का एक तो उक्त उभय विद्वानो के इस मत के साथ दिरोध आता है कि "प्रत्येक वस्तु की त्रैकालिक पर्याये अपने-अपने समय में नियत होकर बैठी हुई हैं" दूसरे इससे यह भी सिद्ध होता है कि परावलम्वनवृत्ति को उक्त उभय विद्वान उपचरित अर्थात् कथन मात्र मानने का भले ही आग्रह करते रहे लेकिन यह बात निश्चित है कि वह परावलम्बनवृत्ति जब जीव के वास्तविक ससार का कारण है तो ऐसी स्थिति में उसे उपचरित ( कथनमात्र ) कैसे माना जा सकता है ? तीसरे इससे जीव के ससार की सृष्टि मे निमित्तो की आश्रितता सिद्ध हो जाने से "कार्य केवल उपादान के बल पर ही उत्पन्न होता है" इस सिद्धान्त का व्याघात हो जाता है।
यदि कहा जाय कि जीव का ससार उसकी पर्यायो मे ही रहता है इसलिये वह स्वभावत ही जीव मे विद्यमान रहता है इस तरह उसमे निमित्तो को आश्रितता सिद्ध नही होती है तो ऐसा स्वीकार करने पर "परावलम्बनवृत्ति अपनाने से जीव ससार का पात्र बना रहता है" यह सिद्धान्त व्याहत हो जाता है। एक बात और है कि जब जीव का ससार स्वभावत ही है तो एक तो उसका कभी नाश नही होना चाहिये, दूसरे यदि नाश होता ही है तो उसका वह नाश स्वभावत ही हो जायगा इसलिये उसके नाश के लिये परावलम्बनवृत्ति छोडकर स्वावलम्बनवृत्ति को अपनाने की बात करना असगत ही है,