Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Mimansa
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Digambar Jain Sanskruti Sevak Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 385
________________ ३४६ लक्षणा और व्यजना वृत्तियो के आधार पर ही क्रमश लक्ष्यार्थ और व्यग्यार्थ का प्रतिपादन हुआ करता है । इसके भी अतिरिक्त एक अन्य बात यह भी कही जा सकती है कि जहा निमित्त और प्रयोजन आरोप प्रवृत्ति के आधार के रूप मे विद्यमान रहेगे वही पर आरोप प्रवृत्ति का उद्भव हो सकता है अन्यत्र नही । लेकिन इसमे इतनी विशेषता समझ लेनी चाहिये कि आरोपित अर्थ की सिद्धि के लिये कही तो लक्ष्यार्थ और व्यग्यार्थ दोनो ही उपयोगी रहा करते है तथा कही केवल लक्ष्यार्थ ही उपयोगी रहा करता है । जैसे 'गगाया घोष. ' यहा पर तो आरोपित अर्थ की सिद्धि के लिये निमित्तभूत लक्ष्यार्थं और प्रयोजन भूत व्यग्यार्थ दोनो ही उपयोगी है लेकिन "मचा क्रोशन्ति" व " धनुर्धावति" स्थलो मे केवल निमित्तभूत लक्ष्यार्थ ही उपयोगी है, क्योकि प्रयोजनभूत व्ययार्थ का वहाँ पर अभाव ही है । " इसमे सदेह प० फूलचन्द्र जी ने जो यह लिखा है कि नही कि आगम से व्यवहारनय की अपेक्षा एक द्रव्य का कर्ता आदि कहा गया है परन्तु वहा पर यह कथन अभिधेयार्थ को ध्यान मे रख कर किया गया है या लक्ष्यार्थ को ध्यान मे रखकर किया गया है इसे समझकर हो इष्टार्थ का निर्णय करना चाहिये” और इसके अनन्तर जो यह लिखा है कि " प्रकृत में इष्टार्थ (लक्ष्यार्थ) दो हैं- ऐसे कथन द्वारा निश्चयार्थ का ज्ञान कराना यह मुख्य इष्टार्थ है, क्योकि यह वास्तविक है और इस द्वारा निमित्त (व्यवहार हेतु ) का ज्ञान कराना यह उपचरित इष्टार्थ है, क्योकि इस कथन द्वारा कहाँ कौन निमित्त है इसका ज्ञान हो जाता है ।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421