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हा प्राप्त हुआ करते हैं । इसलिये उस पद्य को बुद्धि, व्यवसायादि मे अर्थ सिद्धि की विद्यमान कारणता का निषेधक कदापि नही कहा जा सकता है।
यदि कहा जाय कि उक्त पद्य जब उक्त प्रकार से भवितव्यता के साथ-साथ बुद्धि-व्यवसायादि को भी कार्य के प्रति कारण बतलाता है तो फिर इसे जैन-दर्शन मे मान्य कारण व्यवस्था का विरोधी कहना असत्य है तो इस विषय मे मेरा कहना यह है कि पद्य में कार्य के प्रति भवितव्यता के साथ-साथ जिन बुद्धि, व्यवसायादि की कारणता का समर्थन किया गया है उनकी उत्पत्ति अथवा प्राप्ति को उसी भवितव्यता की दया पर छोड दिया गया है जो कार्य की जननी है और यह बात अयुक्त है कि जो भवितव्यता कार्य की जननी है वही भवितव्यता उस कार्य की कारणभूत बुद्धि आदि की भी जननी है क्योकि यदि ऐसा माना जायगा तो इस तरह अनवस्था दोष की प्रसक्ति होगी। इसका कारण यह है कि कार्य की कारणभूत बुद्धि आदि को भी यदि कार्य की कारणभूत भवितव्यता का ही कार्य माना जायगा तो उनकी उत्पत्ति के लिये अन्य बुद्धि आदि कारणो की आवश्यकता होगी और उनके भी भवितव्यता का कार्य हो जाने से उनकी उत्पत्ति के लिये भी अन्य बुद्धि आदि कारणो की आवश्यकता होगी-इस तरह अनवस्था दोष को टालना असभव हो जायेगा । इसलिये इस अनवस्था दोष को टालने के लिये यदि यह माना जाय कि कार्य मे कारणभूत बुद्धि आदि की उत्पत्ति के लिये अन्य बुद्धि आदि कारणो की अपेक्षा नही रहा करती है-उनकी उत्पत्ति तो केवल कार्य मे कारणभूत भवितव्यता से ही हो जाया