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जायते बुद्धि" इस पद्य का समर्थन करना चाहते है वह उचित नही है |
यद्यपि प० प्रवर टोडरमल जी ने अपने उल्लिखित कथन मे लिखा है कि "वहरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाही भवितव्य के आधीन है", परन्तु इससे भी प० फूलचन्द्रजी के इस अभिप्राय का समर्थन नही होता है कि "जो भवितव्यता कार्य की जनक है वही भवितव्यता उस कार्य मे कारणभूत बुद्धि और पुरुषार्थ आदि की जनक होती है ।" इसका कारण यह है कि प० प्रवर टोडरमल्जी के कथन मे भवितव्यता शब्द से सामान्यतया चेतन रूप और अचेतन रूप सभी तरह के कार्यो की उपादानशक्ति को नही ग्रहण किया गया है, केवल प्राणियो की अर्थसिद्धि मे कारणभूत भवितव्यता को हो ग्रहण किया गया है, अत ऐसी भवितव्यता जीव के पारिणामिक भाव भव्यत्व या अभयत्व ही हो सकते हैं अथवा कर्म के यथासंभव उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से प्राप्त अर्थसिद्धि के अनुकूल जीव की योग्यता हो सकती है । अब यहा पर ध्यान इस बात पर देना है कि मान लीजिये - किसी व्यक्ति मे वनी बनने की योग्यता है, लेकिन वह व्यक्ति केवल योग्यता का सद्भाव होने से ही घनी बन जायगा -यह मान्यता जैनदर्शन को नहीं है किन्तु जैनदर्शन को तो मान्यता यह है कि उस व्यक्ति को धनी बनने के लिये अपनी बुद्धि का उपयोग करना होगा, तदनुकूल पुरुषार्थ करना होगा तथा उसमे तदनुकूल अन्य सहकारी कारण भी अपेक्षित होंगे। यह जो प० पृलचन्द्रजी के कहे अनुसार मिद्ध होता है कि उस व्यक्ति मे पायी जाने वालो धनी बनने की योग्यता ही "तादृशी जायते बुद्धि "
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