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उत्पाद के अनुसार बुद्धि, पुरुषार्थ तथा अन्य सायन सामग्री को संग्रहीत पर नेगी, तो यह कथन जैनदर्शन को मान्यता के विपरीत है - यह में पूर्व मे स्पष्ट हो कर चुका हूँ ।
ना होने पर भी मैं यह मानने के लिये तैयार है कि जैनदर्शन कोप के अनुसार भी व्यक्ति में बुद्धि का उद्भव तदनुकूल arrrrrrai के air से प्रकटता को प्राप्त योग्यता ( भवितव्यता ) के आधार पर हो होता है और यही बात रुपा के उद्भव में भी समय लेना चाहिये | यस प्रकार प० प्रवर टोडरमल जी ने जो यह लिखा है कि "उपाय बनना अपने आधीन नाही भवितव्य के आधीन है" यह न तो असंगत है और न जैन-दर्शन के प्रतिकून हो है, कारण कि प्राणियो को अर्थमिति मे जो भी वृद्धि, पुरुषार्थ आदि उपाय अपेक्षित रहते हैं वे सब अपने-अपने अनुकूल ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम आदि के आधार पर निप्पन्न भवितव्यता के आधार पर ही हुआ करते हैं ।
इस प्रकार यदि यह दृष्टि "तादृशो जायते वुद्धि." इत्यादि पद्म का अर्थ करने मे अपनायो जावे तो फिर इसके माथ भी जैन दर्शन मे मान्य कारण व्यवस्था का कोई विरोध नही रह जाता है ।
अन्त में में पुन: इस वात को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यदि हमारे बुद्धि, व्यवसाय आदि उसी भवितव्यता के अनुसार हुआ करते है जो कार्य को जननी होती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा कार्य करने का सकल्प भी उसी भवितव्यता के अनुसार ही होना चाहिये, ऐसी हालत में कार्य के विषय मे