Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Mimansa
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Digambar Jain Sanskruti Sevak Samaj

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Page 399
________________ ३६३ देव की अपेक्षा रखता है अत. परस्पर की अपेक्षा रखने के कारण देव और पुरुषार्थ दोनो ही अर्थ सिद्धि के कारण हुआ करते है | इस तरह इससे ऊपर के कथन की पुष्टि होती है । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह वात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि " तादृगी जायते बुद्धि." इत्यादि रूप मे ग्रथित उक्त पद्य प० फूलचन्द्र जी द्वारा प्रतिपादित (उल्लिखित अर्थ के आधार पर प्राणियो की अर्थ सिद्धि के विषय मे जैनदर्शन द्वारा मान्य देव और पुरुषार्थ को सम्मिलित कारणता का प्रतिरोध ही करता है, कारण कि उक्त पद्य के उक्त अर्थ से यही ध्वनित होता है कि "प्राणियो की अर्थ सिद्धि केवल भवितव्य के अधीन है और यदि उस अर्थ सिद्धि मे प्राणियो की बुद्धि, व्यवसाय तथा अल्प सहायक कारणो की अपेक्षा रहती भी हो तो वे वुद्धि, व्यवसायादि सभी कारण भी उक्त पद्य के उक्त अर्थ के अनुसार भवितव्यता की अधीनता मे ही प्राप्त हुआ करते हैं ।" यत यह व्यवस्था जैन दर्शन मे मान्य नही की गयी है क्योकि जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्राणियो के अर्थ की सिद्धि मे देव और पुरुषार्थ दोनो ही परस्पर सहयोगी वनकर समान रूप से कारण हुआ करते है अत उक्त पद्य की जैनदर्शन की मान्यता के साथ विरोध की स्थिति निर्विवाद हो जाती है । इससे यह बात भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जैन दर्शन की मान्यता के विरुद्ध होने के कारण इस पद्य को प० फूलचन्द्र जी द्वारा अपने पक्ष की पुष्टि गे प्रमाण रूप से उपस्थित किया जाना अनुचित ही है। श्री मदकलकदेव ने उक्त पद्म का जो उद्धरण आप्तमीमासा की वी कारिका को अष्ट गती में दिया है उसमें उनका आदाय इससे साक्षात् अपने पक्ष की पुष्टि का न होकर केवल पुम्पार्थ से वर्थ सिद्धि मानने

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