Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Mimansa
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Digambar Jain Sanskruti Sevak Samaj

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Page 400
________________ ३६४ 1 वाले दर्शन के खण्डन करने मात्र का ही है । यही कारण है कि उक्त पद्य को उन्होने जैन दर्शन का अग न मानकर केवल लोकोक्ति के रूप मे ही स्वीकार किया है । यह बात उनके (श्री मदकलक देव के) द्वारा उक्त पद्य के पाठ के अनन्तर पठित " इति प्रसिद्धे " वाक्याश द्वारा ज्ञात हो जाती है । तात्पर्य यह है कि श्रीमदकलत देव उन लोगो से - जो देव की उपेक्षा करके केवल पौरुपमात्र से प्राणियो को अर्थ सिद्धि स्वीकार करते हैं - यह कहना चाहते हैं कि एक ओर तो तुम दैव के विना केवल पुरुषार्थ से ही अर्थ की सिद्धि मानते हो और दूसरी ओर यह भी कहते हो कि अर्थ सिद्धि मे कारणभूत बुद्धि, व्यवसायादि की उत्पत्ति या सप्राप्ति भवितव्यता से हो हुआ करती है । इस तरह बुद्धि, व्यवसायादि की उत्पत्ति या प्राप्ति मे देव (भवितव्यता) को कारणता प्राप्त हो जाने से परस्पर विरोधी मान्यताओ को प्रश्रय प्राप्त हो जाने के कारण "केवल पुरुषार्थ से ही अर्थ सिद्धि होती है" यह मान्यता खण्डित हो जाती है । एक बात और है कि उक्त पद्य का जो अर्थ प० फूलचन्द्र जी ने किया है वह स्वय ही एक तरह से उनकी इस मान्यता का विरोधी है कि "कार्य केवल भवितव्यता ( समर्थ उपादान शक्ति) से ही निष्पन्न हो जाया करते हैं निमित्त तो वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर ही बने रहते हैं ।" क्योकि उक्त पद्य से यही ध्वनित होता है कि कोई भी काय भवितव्यता के साथ-साथ बुद्धि, व्यवसायादि कारणो का सहयोग प्राप्त हो जाने पर ही निष्पन्न होता है । केवल इनकी विशेषता जानना चाहिये कि वे बुद्धि, व्यवसायादि सभी दूसरे कारण भवितव्यता के अनुसार .

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