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तथा न देव और पुरुषार्थ दोनो के बिना ही अर्थ सिद्धि होती है, अपितु देव और पुरुषार्थ दोनो के परस्पर सहयोग से ही अर्थ सिद्धि हुआ करती है ।
इसमे यह निर्णीत होता है कि यदि कोई व्यक्ति कार्य सिद्धि के लिये पुरुषार्थ कर रहा हो और वहाँ पर देव की अनुकूलता रहने के कारण कार्य की सिद्धि भी हो रही हो लेकिन दैव दुर्लक्षित हो रहा हो तो यह नही समझना चाहिये कि वह काय सिद्धि केवल पुरुषार्थ द्वारा ही हो गयी है । इसी प्रकार किसी व्यक्ति की कार्य सिद्धि के लिये दैव की अनुकूलता हो और पुरुषाथ की अनुकूलता के कारण कार्य की सिद्धि भी हो रही हो लेकिन पुरुषार्थ दुर्लक्षित हो रहा हो तो यह नही समझना चाहिये कि वह कार्य सिद्धि केवल देव द्वारा ही हो गयी है किन्तु ऐसा समझना चाहिये कि वह कार्य सिद्धि देव और पुरुषार्थ दोनो के परस्पर सहयोग से ही हुई है । इस प्रकार कारणो की खोज किये जाने पर यही फलित होता है कि प्राणियो की अर्थ सिद्धि देव और पुरुषार्थ दोनो के परस्पर सहयोग से ही हुआ करती है । इसकी पुष्टि स्वामी समन्तभद्र के श्रीमद्भकलकदेव के और आचार्य विद्यानन्दी के उन कथनो से होती है जो उन्होने क्रमश आप्त मीमासा मे अष्टशती में और अष्ट सहस्रो मे किये है | आचार्य विद्यानन्दी ने अष्ट सहस्री पृष्ठ २५८ पर भी लिखा है
"तथापेक्षानपाये परस्पर सहायत्वेन पौरुषाभ्यामर्थ सिद्धि
देव
इसका अर्थ यह है कि कारणभूत दैव पुरुषार्थ की
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चूँकि प्राणियो की अर्थ सिद्धि में अपेक्षा रखता है और पस्पाथ