Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Mimansa
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Digambar Jain Sanskruti Sevak Samaj

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Page 386
________________ ३५० इस विपय मे मेरा कहना है कि और जैसा पूर्व मे बतलाया भी चुका है कि मुख्यार्थ की तरह उपचरित अर्थ भी शब्द का अभिधेय हुआ करता है केवल बात यह है कि 'मुख्यार्थ तो स्वत सिद्ध रहता है और उपचरित अर्थ निमित्तभूत लक्ष्यार्थ के आधार पर निष्पन्न होता है । जैसे कुम्भकार व्यक्ति मे जो कुम्भकर्तव्य है वह कुम्भकार शब्द का अभिधेय तो है परन्तु उपचरित रूप मे अभिधेय है, क्योकि कुम्भकार व्यक्ति मे कुम्भ कर्तृत्व की सिद्धि उसके घटोत्पत्ति मे सहायक होने 'रूप लक्ष्यार्थ के आधार पर ही होती है । इस तरह कुम्भकार शब्द दो अर्थो का प्रतिपादन करता है एक तो अभिधावृत्ति के आधार पर कुम्भ कर्तृत्व रूप उपचरित अर्थ का प्रतिपादन करता है और दूसरे लक्षणावृत्ति के आधार पर घटोत्पत्ति मे सहायक होने रूप लक्ष्यार्थ का भी प्रतिपादन करता है। मेरे इस विवेचन से प० फूलचन्द्र जी का यह लिखना कि "प्रकृत मे इष्टार्थ (लक्ष्यार्थ) दो हैं-ऐसे कथन द्वारा निश्चयार्थ का ज्ञान कराना यह मुख्य इष्टार्थ है, क्योकि यह वास्तविक है और इस द्वारा निमित्त (व्यवहार हेतु) का ज्ञान कराना उपचरित इष्टार्थ है, क्योकि इस कथन द्वारा कहा कौन निमित्त है इसका ज्ञान हो जाता है" व्यर्थ हो जाता है। ता तात्पर्य यह है कि कुम्भकार शब्द से कुम्भकार व्यक्ति मे जो कुम्भकर्तृत्व का बोध होता है यह भी अनुभवगम्य है और उसका वह कर्तृत्व उसके घटोत्पत्ति मे सहायक होने के आधार पर निर्णीत होता है यह भी अनुभवगम्य है । यद्यपि इस बात को अस्वीकृत करते हुए प० फूलचन्द जी का कहना है कि

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