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विशिष्ट आत्मा मे ही सम्भव है अचेतन पदार्थों मे उद्यम की कल्पना करना असम्भव है । तीसरी बात इस विषय मे मैं यह कहना चाहूँगा कि यदि गोम्मटसार कर्मकाण्ड से कथन के आधार पर · प० फूलचन्द्र जी स्वभाव आदि पाँच के समवाय को कारण मानते हैं तो फिर गो० कर्मकाण्ड मे ही अलग से पौरुषवाद, दैववाद, सयोगवाद, तथा लोकवाद का कथन करते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने अन्त मे गाथा ८९४ द्वारा जो यह कहा है कि " जितने वचन के प्रकार सम्भव हो उतने हो नयवाद हैं और जितने नयवाद हों उतने ही पर समय हैं" इसके रहते हुए केवल स्वभावादि पाँच के समवाय मे कार्योत्पत्ति के प्रति कारणता को सीमित करना कहाँ तक तर्क संगत है ?
इस विवेचन का सार यह है कि उक्त कथन में आचार्य श्री नेमिचन्द्र की दृष्टि यह नही रही है कि ईश्वर आदि एकएक के आश्रय से कार्योत्पत्ति मानने वाले मिथ्यादृष्टि हैं और इनके समवाय से कार्योत्पत्ति मानने वाले सम्यग्दृष्टि हैं । उनकी दृष्टि तो उसमे केवल इतनी ही रही है कि कौन परसमयवादी किस आधार पर कार्योत्पत्ति मानता है और उसकी वह मान्यता सत्य है अथवा असत्य है । एक बात और है कि यदि आचार्य नेमिचन्द्र की दृष्टि ईश्वर आदि के समवाय से कार्योत्पत्ति स्वीकार करने की होती तो वे अपने उक्त कथन
ईश्वरवाद या आत्मवाद को किसी भी प्रकार स्थान नही दे सकते थे क्योंकि मैं कह चुका हूँ कि जैन दर्शन मे न तो ईश्वर को कार्योत्पत्ति का कर्ता माना गया है और न समस्त कार्यों मे आत्मा को ही कारण माना गया है। इसके अतिरिक्त इस विषय मे मेरा कहना यह भी है कि स्वभाव आदि पाच मे