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एक वात और है कि प० फूलचन्द्र जी एक ओर तो यह कहते है कि "व्यवहार रत्नत्रय स्वय धर्म नहीं है निश्चय रत्नश्रय के सद्भाव मे उसमे धर्म का आरोप होता है यह वात अवश्य है। इसी प्रकार रुढिवश जो जिस कार्य का निमित्त कहा जाता है उसके सद्भाव मे भी तब तक कार्य की सिद्धि नही होती है जब तक जिस कार्य का वह निमित्त कहा जाता है उसके अनुरूप उपादान की तैयारी न हो अतएव कार्य की सिद्धि मे निमित्त अकिंचित्कर है।" (जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ २५२) व दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि “साधारण नियम यह है कि प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मे ये पांच कारण नियम से होते हैं-स्वभाव, पुरुपार्थ, काल, नियति और कर्म (परपदार्थ व्यवस्था)" (जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ ६५) ।
प० फूलचन्द्र जी के इन दोनो कथनो पर एक साथ दृष्टि डालने से स्पष्ट मालूम होता है कि कार्योत्पत्ति मे निमित्तो की कारणता के विषय मे उनकी परस्पर विरुद्ध दो मान्यताएं हैं। अर्थात् जहाँ पहले कथन से वे यह प्रगट करना चाहते हैं कि कार्य की सिद्धि केवल उपादान के तैयार हो जाने पर यानि उपादानकारणभूत वस्तु के कार्य से अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याय मे पहुँच जाने पर नियम से हो जाया करती है निमित्तो का कार्य की सिद्धि मे कोई उपयोग नही होता वे तो सदा अकिंचित्कर ही बने रहते हैं वहाँ दूसरे कथन से पहली मान्यता के ठीक विपरीत वे यह भी प्रगट कर रहे हैं कि कार्य की सिद्धि स्वभाव, पुरुषार्थ, काल, नियति और कर्म इन पांचो का समवाय हो जाने पर ही हुआ करती है। इतना ही नही, उक्त