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कार्य के प्रति अकिचित्कर होने के आधार पर नही बतलाया है प्रत्युत मोक्षकार्य के प्रति साक्षात् कारणभूत निश्चयरत्नत्रय का कारण होने से परम्परया मोक्ष का कारण होने के आधार पर ही बतलाया है। इस तरह प० फूलचन्द्रजी का यह सब कथन कि "व्यवहाररत्नत्रय स्वय धर्म नही है । निश्चयरत्नत्रय के सद्भाव मे उसमे धर्म का आरोप होता है-इतना अवश्य है। इसी प्रकार रूढिवश जो जिस कार्य का निमित्त कहा जाता है उसके सद्भाव मे भी तब तक कार्य की सिद्धि नही होती है जब तक जिस कार्य का वह निमित्त कहा जाता है उसके अनुकूल उपादान की तैयारी न हो, अतएव कार्यसिद्धि मे निमित्तो का होना अकिंचित्कर है।" मिथ्या सिद्ध हो जाता है।
अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष और तर्क भी इस बात को सूचित करते हैं कि कार्यसिद्धि के लिये प्रत्येक व्यक्ति उपादान पर तो लक्ष्य रखता है परन्तु यदि निमित्त पर लक्ष्य नही रक्खा जावे अर्थात् उपादान की विवक्षित कार्यरूप परिणति के लिये निमित्त सामग्री का उपयोग नही किया जावे तो वह उपादान उस कायरूप परिणत होने मे तब तक असमर्थ ही रहेगा जब तक तदनुकूल निमित्त सामग्री का उपयोग नही किया जायगा। जैसे किसी व्यक्ति को यदि भवन का निर्माण करना है तो वह व्यक्ति भवन की उपादानभूत ईट, पत्थर, लकडी, चूना, सीमेट, लोहा आदि का सग्रह करने के साथ निमित्तभूत मिस्त्री, बेलदार, रेजा आदि को व अन्य निमित्त सामग्री को भी जुटाने का प्रयत्न करता है क्योकि वह जानता है कि उक्त उपादान सामग्री स्वय ( अपने आप ) ही भवनरूप परिणत नही होगी किन्तु उक्त निमित्त सामग्री का सहयोग प्राप्त होने पर ही वह भवनरूप परिणत होगी। यही वात