Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Mimansa
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Digambar Jain Sanskruti Sevak Samaj

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Page 368
________________ ३३२ असत्य होने पर भी व्यवहार मे लक्ष्यार्थ की दृष्टि से) यह असत्य नही माना जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्यों ने ऐसे शब्द प्रयोगो को असत्य शब्द द्वारा व्यवहृत न कर जो उपचरित कहा है वह इसी अभिप्राय से कहा है ।" (जैनतत्त्वमीमासा विषय प्रवेश प्रकरण पृष्ठ १०-११) । आगे प० जी द्वारा उपचार के विषय मे अपनाये गये इस दृष्टिकोण मे आगम के दृष्टिकोण से क्या अन्तर है ? इसे स्पष्ट किया जाता है। उपचार के सम्बन्ध में मैंने ऊपर जो कुछ लिखा है और जैनतत्त्वमीमासा के उद्धरण दिये है इससे स्पष्ट है कि आगम मे जहां एक वस्तु या धर्म का अन्य वस्तु या धर्म मे निमित्त और प्रयोजन के आधार पर उपचार (आरोप) करके उस उपचरित अर्थ को प्रयोग मे आये हुए शब्द का प्रतिपाद्य अर्थ माना गया है वहां प० फूलचन्द्र जी आदि उसको प्रयोग मे आये हए शब्द का प्रतिपाद्य अर्थ मानने के लिये तैयार नही हैं क्योकि उनके मत से उस प्रकार के शब्द प्रयोग का नाम उपचार है जो किसी भी प्रकार के अर्थ का प्रतिपादक तो नही होता केवल वह इष्टाथ का ज्ञान कराने मे हेतु मात्र होता है। इस प्रकार (आगम में उपचार को जहाँ अर्थगत स्वीकार करके शब्द को उसका प्रतिपादक स्वीकार किया गया है वहाँ प० फूलचन्द्र जी उसको केवल शब्दगत यानि जवानी जमा-खर्च मानकर सतुष्ट हो जाना चाहते है कारण कि वे यही तो कहते हैं कि एक द्रव्य दसरे द्रव्य का कर्ता नही होता केवल वचन द्वारा उसका कथन मात्र किया जाता है जब कि इस विषय मे आगम का अभिप्राय

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