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उपचार मे कारणभूत लक्ष्यार्थ होता है और इसी तरह व्यञ्जक 'शब्द को भी इसलिए असत्यार्थ मानना चाहिये कि उसका प्रतिपाद्य अर्थ भी अभिधेय न होकर उपचार का प्रयोजनभूत व्यग्यार्थ होता है तथा इसी तरह सशय, विपर्यय अनध्यवसित रुप शब्दो को भी असत्यार्थ इसलिए मानना चाहिये कि उनका प्रतिपाद्य अर्थ सम्यक अभिवेय न होकर सशय, विपर्यय और अनध्यवसित स्प मिथ्या अभिधेय होता है। इनके अतिरिक्त "वन्ध्या का पुत्र" आदि निरर्थक शब्दो की असत्यार्थता इसलिए मानना चाहिये कि वे उपयुक्त पाच प्रकार के अर्थों में से किसी भी प्रकार के अर्थ का प्रतिपादन न करने के कारण निरर्थक माने गये हैं। इस प्रकार प० फूलचन्द्र जी आदि का उपचरित अर्थ को सर्वथा असत्यार्थ तथा उसके प्रतिपादक शब्द को भी सर्वथा असत्यार्थ अर्थात् निरर्थक या कथन मात्र मानना मिथ्या है।
यह वात में पूर्व में बतला चूका है कि यदि उपचरित शब्द निरर्थक ही होता है तो फिर उससे इष्टार्थ का बोध कैसे हो सकता है। यही कारण है कि "अन्न वै प्राणा." इस वचन के प्रतिपाद्य रूप से निमित्त और प्रयोजन के आधार पर अन्न मे प्राण रूप अभिधेय अर्थ की स्थापना की गयी है जैसी कि पत्थर को मूर्ति मे निमित्त और प्रयोजन के आधार पर भगवान की स्थापना की जाती है। इससे भी यह आशय निकलता है कि उपचार अर्थगत ही होता है शब्द तो उपचरित अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण उपचरित कहलाता है।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि उपचरित अर्थ की सिद्धि के लिये निमित्तो और प्रयोजनो की विविधता पायो जाती है इसलिये उपचरित अर्थ भी विविध प्रकार के हो जाते