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समर्थन किया है तथा इसी १६० वी गाथा की टीका' मे आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त दोनो रत्नत्रयो मे साध्य साधक भाव बतला कर १६२ और १६३ वी गाथाओ की टीकाओ२ मे उस साध्य साधक भाव को इस प्रकार घटित किया है कि व्यवहाररत्नत्रय साधक है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है।
इस प्रकार उक्त आगम वचनो के आधार पर निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयो का इस प्रकार स्वरूप निर्धारित होता है कि जीव की वस्तुतत्त्व व्यवस्था के प्रति “यह ऐसा ही है" इस तरह की आस्था हो जाना ही व्यवहार सम्यग्दर्शन है और इसके आधार पर उसकी आत्मकल्याण मे रुचि जाग्रत हो जाना निश्चय सम्यग्दर्शन है । इसी तरह जीव को वस्तुतत्त्व के प्रतिपादक आगम का ज्ञान हो जाना व्यवहार सम्यग्ज्ञान है और इसके आधार पर आत्मा को ज्ञान हो जाना निश्चय सम्प्रग्ज्ञान है और इसी तरह उक्त सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक निश्चय सम्यक्चारित्र के कारणभूत परालम्वन के त्यागरूप पुरुपार्थ की प्रक्रिया को जीव द्वारा अपना लिया जाना व्यवहार
(१) निश्चय व्यवहारयो साध्य साधन भावत्वात् । (२) निश्चय मोक्ष मार्ग साधन भावेन पूर्वी द्दिष्ट
व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देशोऽयम् । ध्यवहार मोक्ष मार्ग साध्य भावेन निश्चय
मोक्ष मार्गो पन्यासोऽयम् ॥ (३) मोहतिमरापहरणे दर्शन लाभादवाप्त सज्ञान । रागदोष निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु ॥४७॥
(रत्नकरण्ड श्रा०)