________________
३००
तीसरी ढाल से छठी ढाल तक का अवलोकन करना चाहिये । निश्चयरत्नत्रय का स्वरूप तीसरी ढाल मे निम्न प्रकार बतलाया गया है
परद्रव्यन ते भिन्न आप मे रुचि सम्यक्त्व भला है। आप रूप को जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है ।। आप रूप मे लीन रहे थिर सम्यक चारित सोई। अव ववहार मोरवमग सुनिये हेतु नियत को होई ॥३-२।।
इसका अर्थ स्पष्ट है। इसमे ऊपर के तीन चरणो मे प० जी ने निश्चयरत्नत्रय का स्वरूप बतलाया है तथा चतुर्थ चरण मे सकेत किया है कि इससे आगे सम्पूर्ण तीसरी ढाल मे व चौथी, पाचवी और छठी ढालो मे व्यवहाररत्नत्रय का स्वरूप बतलाया जायगा । इस तरह उन्होने उक्त सभी ढालो मे व्यवहाररत्नत्रय विस्तार से स्वरूप बतला दिया है।
पचास्तिकाय की १६१ वी गाथा' मे निश्चयरत्नत्रय का और १६० वी गाथा मे व्यवहाररत्नत्रय का स्वरूप छहढाला के अनुरूप ही बतलाया गया है। इसी पञ्चास्तिकाय की १६० वी गाथा की टीका मे आचार्य जयसेन ने निश्चय और व्यवहार दोनो ही प्रकार के रत्नत्रयो मे मोक्ष की कारणता का
(१) णिच्छयणयेण मणि दो तिहि तेहि समाहि दो टु जो अप्पा । __ण कुणदि किचिदि अण्ण ण मुयदि सो मोक्ख मग्गोत्ति ॥१६॥ (२) धम्मादी सद्दहण सम्मत्त णाणमगपुन्वगव ।
चेट्ठा तव हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ।।१६ ॥ . (३) निश्चय व्यवहार मोक्ष कारणे सति मोक्षकार्य स भवति ।