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हो है और इसका कारण जीव की अनादि काल से ही पौद्गलिक कर्म-नोकर्म के साथ बद्धता व इसका भी कारण मोहकर्म के साथ बद्धता है । समयसार मे निम्नलिखित गाथा द्वारा मोहकर्म बद्धता को ही इसका कारण प्रतिपादित किया गया है।
उवओगस्स अणाई परिणामा तिणि मोहजुत्तम्स। मिच्छत अण्णाण अविरदि भावो य णादवो ||६६ ।
अर्थ-पौद्गलिक मोहकर्म के साथ सयुक्त (बद्धता को प्रास) हुए जीव के उपयोग का अनादि काल से तीन रूप परिणमन हो रहा है और उसे मिथ्यात्व, अज्ञान तथा अविरति रूप समझना चाहिये।
जीव मोहकर्म बद्धता के कारण ही ज्ञानावरणादि कर्मों । और शरीरादि नोकर्मो से अनादि काल से बद्ध रहता आया है जिसका परिणाम यह हुआ है कि वह अपने से स्पष्ट पृथक् दिखने वाली भोजनादि पर वस्तुओ का अवलम्बी भी अनादि काल से ही हो रहा है। अतएव इस तरह की स्थिति को प्राप्त जीव के सामने मुख्य प्रश्न उक्त कर्मो तथा नोकर्मों से छुटकारा पाना ही है। तत्त्वार्थ सूत्र के दशवे अध्याय के "बन्धहेत्व भावनिर्जराभ्या कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्ष" सूत्र द्वारा मुक्ति का यही लक्षण प्रतिपादित किया गया है। अर्थात् आगामी कर्म बन्ध के कारणो का प्रतिरोध यानि सवर और बद्ध कर्मो की निर्जरा होने से जो जीव की कर्मों तथा नोकर्मों के साथ वद्धता समूल नष्ट हो जाती है उसी का नाम मोक्ष (मुक्ति) है।
___ इस मुक्ति की प्राप्ति के लिये जीव को पहले तो दर्शन मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त तीन और अनन्तानुवन्धी चारित्र