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अशुभ योगमय प्रवृत्ति ( पुरुषार्थ ) का नाम ही पापाचरण है इस तरह इस रूप में उनका सद्भाव यथामभव दशम गुणस्थान तक ही रहा करता है। इसलिये दशम गुणस्थान के आगे गुभ Fप मे केवल योग का ही सद्भाव रहा करता है।
सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक जो पृण्याचरण रहता है वह केवल धर्म ध्यान के रूप मे ही रहा करता है और यही कारण है कि दशम गुणस्थान तक घमं ध्यान का सद्भाव आगम मे स्वीकार किया गया है। इसका भी कारण यह है कि यदि पुण्याचरण का सद्भाव दशम गुणस्थान तक नहीं माना जाय तो फिर वहाँ कर्मबन्ध का होना असभव ही हो जायगा। यद्यपि सप्तम गुणस्थान की सातिशय अंप्रमत्त अवस्था ने शुक्ल ध्यान का सद्भाव आगम मे स्वीकार किया गया है परन्तु इसका आधार आत्म विशुद्धि की अध करणादि परिणाम रूपता को ही माना गया है जो कि कर्मो के उपशम अथवा क्षय का कारण होती है क्योकि धर्म ध्यान पुण्याचरण स्प होने से वन्ध काही कारण होता है । आत्म विशुद्धि की यह अध करणादि परिणामरूपता दर्शन मोहनीय कर्म व अनन्तानुवन्धी कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के लिये 'आवश्यक होने से सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव के भी हुआ करती है।
इस तरह पापाचरण और पुण्याचरण दोनो ही यथायोग्य प्रकार से बन्ध के कारण होते है और दोनो बन्ध के ही कारण होते हैं । इन दोनो मे विशेषता यह है कि पापाचरण तो जीव को बाह्यरूप मे छोडना पडता है लेकिन अन्तरग रूप मे जैसा-जेसा कपायो का अनुदय अथवा उपशम या क्षय होता जाता है वैसा वैसा छूटता जाता है । पुण्याचरण