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कर्मों के स्थिति और अनुभाग रूप से बन्ध मे कारण होती है । लेकिन इतनी बात अवश्य है कि जीव की क्रिया ज्ञान के अनुसार ही हुआ करती है । इसका आशय यह हुआ कि यदि ज्ञान दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से विकृत हो रहा हो तो क्रिया भी 'उससे प्रभावित हुए बिना नही रह सकती है, इसलिये जब दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के आधार पर ज्ञान में से उक्त प्रकार का विकार समाप्त हो जाता है तो जीव की उक्त क्रिया मे भी अन्तर आ जाना स्वाभाविक है । यही कारण है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रादुर्भाव मे दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के साथ ही अनन्तानुबन्धी कपाय के उपशय या क्षय को अथवा उपशम और क्षय दोनो ही को कारण स्वीकार किया गया है । इससे यह निष्कर्ष भी सहज ही निकल आता है कि जो जीव दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के आधार पर ज्ञान की निर्विकारता को प्राप्त हो जावे उसमे सम्यग्दृष्टि बनने के लिये अनन्तानुबन्धी कपाय के उपशम या क्षय अथवा उपशम और क्षय दोनो के आधार पर सकल्पी पापो का त्याग अवश्य हो जाना चाहिये क्योकि जीव सकल्पी पाप भी करता रहे और सम्यग्दृष्टि भी हो जावे यह व्यवस्था आगम की नही है । इसलिये जो विद्वान् या, साधारणजन गोम्मटसार जीवकाण्ड की "णो इन्दियेसुविरदो" इत्यादि गाथा २६ का विपरीत अर्थ करके यह बतलाते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अन्याय, अत्याचार, उच्छ ङ्खल या अनुचित सकल्पी पाप रूप प्रवृत्ति करते हुए भी सम्यग्दृष्टि बना रहता है वे अपने आगम सम्बन्धी अज्ञान को ही प्रगट करते हैं, क्योकि जीव की उक्त सकल्पी पाप रूप प्रवृत्ति अनन्तानुवन्धी कपाय के उदय मे ही
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