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सम्यक चारित्र है और परावलम्बन के त्याग की पूर्णता हो जाने पर जीव मे स्वावलम्बन की स्थिति का विकास हो जाना निश्चय सम्यक्चारित्र है।
यहा इतना विशेष समझना चाहिये कि सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी वही जीव कहलाता है जिसने अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम या क्षय अथवा उसके वर्तमानकाल मे उदय आने योग्य निषेको का उदयाभावी क्षय और आगामी काल मे उदय आने योग्य निषेको का सदवस्थारूप उपशम हो जाने पर क्रोधादि कषायरूपवृत्ति और हिसादि सकल्पी पापरूप प्रवृत्ति को अपने जीवन से निकाल दिया हो-जैसा कि पूर्व मे बतला दिया गया है । इस तरह जो जीव सकल्पी पापो के त्याग के अनन्तर आरम्भी पापो के त्याग की प्रक्रिया अपना लेता है वह व्यवहार सम्यक् चारित्री कहलाने लगता है तथा ऐसा जीव धीरे-धीरे आरम्भी पापो के उस त्याग मे वृद्धि करता हुआ अन्त मे जव सम्पूर्ण आरम्भी पापो का त्यागी हो जाता है तब उसके व्यवहार सम्यकचारित्र की पूर्णता होती है और उसके अनन्तर ही उसे स्वावलम्बन की स्थितिरूप निश्चय सम्यकचारित्र की प्राप्ति होती है। यह सब भी पूर्व मे स्पष्ट किया जा चुका है तथा आगे भी स्पष्ट किया जायगा।
निमित्तकारण और उपादानकारण तथा व्यवहाररत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय के स्वरूप का विवेचन करने वाले इस कथन से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि आगम मे निमित्तकारण को जो उपचरित कारण बतलाया है वह कार्य के प्रति अकिंचित्कर होने के आधार पर नहीं बतलाया है प्रत्युत उपादान की कार्य परिणति मे उपादान का सहायक होने के आधार पर ही बतलाया है। इसी प्रकार आगम मे व्यवहाररत्नत्रय को जो उपचरित धर्म बतलाया है वह मोक्षरूप