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ऐसा भी प्रसंग उपस्थित हो जाता है कि हम पदार्थ का जैसा परिणमन चाहते है और उसके लिये प्रयत्न करते है, पदार्थ का वैसा परिणमन होता हुआ देखा जाता है, इसलिये हम मान लेते हैं कि इसे हमने परिणमाया, अन्यथा इसका ऐसा परिणमन न होता । किन्तु यह मानना कोरा भ्रम है और यही भ्रम संसार की जड है । अतएव सबसे पहले इस ससारी जोव को अपने आत्मस्वरूप को पहिचान के साथ इसी भ्रम को दूर करना है । इसके दूर होते ही इसके स्वावलम्वन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । स्वावलम्बन का मार्ग कहो या मुक्ति मार्ग कहो, दोनो कथनो का एक ही अभिप्राय है । अतीत काल में जो तीर्थकर सन्त महापुरुष हो गये है वे स्वयं इस मार्ग पर चल कर मुक्ति के पात्र तो हुए ही, दूसरे ससारी प्राणियो को भी उन्होने अपनी चर्चा और उपदेश द्वारा इस मार्ग के दर्शन कराये ।"
प० जगन्मोहन लाल जी ने यह जो कुछ लिखा है वह वहाँ तक ठीक लिखा है जहाँ तक दृष्टि भेद नही है परन्तु दृष्टि भेद के कारण इसका महत्व समाप्त हो जाता है । आगे इसी बात को स्पष्ट किया जा रहा है ।
इसमे सदेह नही कि ससार मेजड और चेतन जिसने पदार्थ हैं वे सब स्वतंत्र हैं परन्तु इसका अभिप्राय यह नही है कि पदार्थ परतंत्रता का अभाव है । आगम, अनुभव और युक्ति से जिस प्रकार पदार्थ की स्वतंत्रता सिद्ध होती है उसी प्रकार उसकी परतत्रता भी सिद्ध होती है इसलिये विचारणीय बात यह है कि पदार्थ क्यो तो स्वतंत्र है और क्यो परतत्र है ।