________________
२६१
प० जगन्मोहनलालजी ने अपने उपर्युक्त कथन में जो यह लिखा है कि "एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को बलात् नही परिणमा सकता। यद्यपि काकतालीयन्याय से कभी ऐसा प्रसग उपस्थित हो जाता है कि हम पदार्थ का जैसा परिणमन चाहते है और उसके लिये प्रयत्न करते हैं पदार्थ का वैसा परिणमन होता हुआ देखा जाता है इसलिये हम मान लेते है कि इसे हमने परिणमाया, अन्यथा इसका ऐसा परिणमन नही होता, किन्तु यह मानना कोरा भ्रम है ।"
इस विषय मे मैं पडित जी से पूछना चाहता हूँ कि मिट्टी आदि पदार्थो से घट आदि पदार्थों का निर्माण कुम्भकार आदि के तदनुकूल व्यापार करने पर ही होता हुआ देखा जाता है, अब यदि ऐसी घटना को काकतालीयन्याय के अनुसार होती हुई ही माना जाय तो घट निर्माण के उद्देश्य से कुम्भकार द्वारा खानि से बुद्धिपूर्वक मिट्टी को खोदकर लाया जाना, उसे घटनिर्माण के योग्य बनाया जाना, फिर दण्ड, चक्र आदि सावन सामग्री के सहारे पर बुद्धिपूर्वक किये गये अपने व्यापार से ही मिट्टी मे घटनिर्माण की क्रिया उत्पन्न होने सम्बन्धी अनुभव के आधार पर उस प्रकार का व्यापार किया जाना आदि सब प्रकार का प्रयत्न क्या मूर्खता का ही कार्य समझ लिया जाना चाहिये ? और यदि ऐसा है तो फिर प्रत्येक बुद्धिमान और विवेकी-व्यक्ति का घट प्राप्ति के लिय कुम्भकार के घर दौडा जाना कहाँ तक बुद्धि सगत माना जा सकेगा? जब कि इस प्रकार के प्रयत्न से कुम्भकार के घर पर घट की प्राप्ति हाने की अनुभूत वात लोक मे संगत मानी जाती है। इसी तरह प० फूलचन्द्र जी के अन्त करण मे 'जैनतत्त्वमीमासा' पुस्तक लिखने की भावना जाग्रत होना, तदनुसार उसके लिखने