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उसमे कारणता का आरोप मात्र किया जाता है । इस प्रसग मे उन्होने एक वात यह भी उक्त कथन मे प्रतिपादित की है कि निश्चयरत्नत्रय को प्राप्ति हो जाने पर वहा व्यवहाररत्नत्रय होता ही है उसे प्राप्त करने के लिये अलग से प्रयत्न नही करना पडता है । इसी प्रकार निमित्त के विषय मे भी वे कहना चाहते है कि उपादान की कार्य सिद्धि के अनुकूल तैयारी होने पर निमित्त वहाँ उपस्थित रहता ही है उसे जुटाने के लिये अलग से प्रयत्न नही करना पड़ता है। आगे इसकी मीमासा की जा रही है।
कार्य सिद्धि के प्रति निमित्त की अकिंचित्करता के विरोध और कार्यकारिता के समर्थन मे पर्याप्त लिखा जा चुका है । इसी प्रकार व्यवहाररत्नमय की धर्मरूपता या मोक्ष कारणता के समर्थन मे भी लिखा जा चुका है फिर भी प्रसगवश पुन लिख रहा हूँ।
निमित्तकारण की अकिंचित्करता के विरोध और कार्यकारिता के समर्थन मे मैंने लिखा है कि आचार्य विद्यानन्दी ने अष्ट सहस्री मे "तदसामर्थ्यमखण्यद किंचित्करं किं सहकारिकारण स्यात्" वचन द्वारा तथा आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमल मार्तण्ड मे "यच्चोच्यते शक्तिनित्या अनित्याचेत्यादि, तत्र किमय द्रव्यशक्ती पर्याय शक्ती वा प्रश्न. स्यात्" इत्यादि वचन द्वारा निमित्त कारण की अकिंचित्करता के विरोध और कार्यकारिता के समर्थन मे ही अपना अभिमत प्रगट किया है। इससे यह बात निर्णीत होती है कि कार्य यद्यपि उपादानगत्त योग्यता के आधार पर ही होता है परन्तु निमित्त कारण के