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तीसरे उक्त उभय विद्वानो की दृष्टि मे प्रत्येक वस्तु वास्तव मे जव सर्वदा स्वतन्त्र ही रह रही है क्योकि उनकी मान्यता के अनुसार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य मे कुछ भी परिवर्तन नही कर सकता है जो कुछ भी वस्तु मे परिवर्तन होता है वह स्वभावतः ही होता है तो ऐसी स्थिति मे भी परावलम्वनवृत्ति छोडने की बात करना बेकार है । यदि कहा जाय कि समयसार मे भी एक द्रव्य मे दूसरे द्रव्य द्वारा परिण मन कराने का निपेध किया गया है तो मैं कहूगा कि इसका आशय यह नही है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के परिणमन मे निमित्त भी नही होता है किन्तु उसका आशय यह है कि एकद्रव्य के गुणधर्म दूसरे द्रव्य मे प्रविष्ट नहीं होते हैं अर्थात् एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ कभी तादात्म्य सम्बन्ध नही हो सकता है लेकिन सयोग तो होता है और यही कारण है कि जहाँ एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध न हो सकने के कारण केवल परप्रत्यय परिणमन का आगम मे निषेध किया गया है वहाँ एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ सयोग होने से स्वपरप्रत्यय परिणमन का वही पर ( आगम मे ) समर्थन भी किया गया है। तात्पर्य यह है कार्य के प्रति उपादानकारणता तादात्म्य सम्बन्ध के आश्रित है इसलिये एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य का उपादानकारण तो नही होता है क्योकि उन दो द्रव्यो मे तादात्म्य सम्बन्ध का अभाव है परन्तु कार्य के प्रति निमित्तकारणता सयोग सम्बन्ध के आश्रित है इसलिये एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य के प्रति निमित्तकारण तो हो ही सकता है क्योकि उन दो द्रव्यो मे तादात्म्य सम्बन्ध का अभाव होने पर भी सयोग सम्बन्ध का सद्भाव तो हो ही सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि वस्तु का स्वभाव परिणमन करना है क्योकि यदि वस्तु का