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दूसरे पद्य का अर्थ है कि जिस प्रकार वस्तु परिणामी है उसी प्रकार उसके गुण भी परिणामी है इसलिये गुणो में भी उत्पाद तथा व्यय सिद्ध हो जाते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र के पचम अध्याय मे भी "सद्रव्यलक्षणम् ॥६६॥" तथा "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ।।३०}}" इन दोनो सूत्रो द्वारा उक्त अर्थ का समर्थन किया गया है। उक्त दोनो सूत्रो का अभिप्राय यह है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के रूप मे जो परिणमनशील हो उसे सत् नाम से पुकारा जाता है और जो उक्त प्रकार से सत् हो उसे ही द्रव्य नाम से पुकारा जाता है। चूकि पूर्वोक्त एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य, असख्यात कालद्रव्य, अनन्तानन्त जीवद्रव्य और अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य ये सब वस्तुयें अपने-अपने पृथक-पृथक स्वत सिद्ध और प्रतिनियत स्वरूप के आधार पर 'सत्' की कोटि मे समाविष्ट होती हैं अत इन सब वस्तुओ को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के रूप में परिणमनशील स्वीकार किया गया
परिणमनशीलता के अर्थ में उत्पाद और व्यय के साथ
ध्रौव्य भी गर्मित है परिणमनशोलता के अर्थ मे उत्पाद और व्यय के साथ ध्रौव्य को भी गभित किया गया है इसका कारण यह है कि प्रत्येक वस्तु के स्वभाव मे जो पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद रूप परिणमन होता है वह परिणमन वस्तू स्वभाव के साथ प्रतिनियत रहता है अर्थात् वह परिणमन वस्तुस्वभाव की परिधि मे हुमा करता है वस्तुस्वभाव की परिधि के बाहर त्रिकाल मे कभी किचिन्मात्र परिण मन नहीं होता है।