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लेता है तब उसके लिये निमित्त की अपेक्षा समाप्त हो जाती है । `जैसे कुम्भकार घटरूप कार्य मे तभी तक उपयोगी है जब तक घट निष्पन्न नही होता है । और जब घट निष्पन्न हो जाता है। तो फिर वहाँ पर कुम्भकार को उपयोगिता समाप्त हो जाती है । लेकिन जिस प्रकार घट के निप्पन्न हो जाने पर कुम्भकार की उपयोगिता नही रह जाती है उस प्रकार उसकी उपादानभूत मिट्टी की भी उपयोगिता समाप्त हो जाती है— सो बात नही है कारण कि कुम्भकार के अभाव मे तो घट अपनी सत्ता बनाये रखता है परन्तु घट के निष्पन्न हो जाने पर भी मिट्टी की स्थिति
यदि घट के प्रतिकूल कोई विकृति पैदा होती है तो उस समय घट भी अपनी स्थिति को सम्हालने में असमर्थ हो जाता है । इस प्रकार निमित्त और उपादान में अन्तर पाया जाने पर भी कोई व्यक्ति कभी यह नही सोचता है कि घट कुम्भकार के अभाव मे भी बन कर तैयार हो सकता है । इसलिये यह निष्कर्ष निकला कि निमित्त कार्य मे तब तक उपयोगी है जब तक कार्य निष्पन्न नही हो जाता है यानि कार्य के निष्पन्न हो जाने पर निमित्त की उपयोगिता समाप्त हो जाती है । लेकिन उपादान की उपयोगिता चूकि कार्य निष्पन्न होने से पूर्व और पश्चात् सतत बनी रहती है अत उपादान सर्वदा उपयोगी ही रहा करता है ।
तीसरे तर्क मे प० फूलचन्द्र जो का कहना यह है कि " सूत्र मे विद्यमान 'क्षय' शब्द से ज्ञानावरणादि कर्मों की अकर्मरूप उत्तर पर्याय को ग्रहण करने की बात सूत्र से फलित नही होती है इसलिये 'क्षय' शब्द से ज्ञानावरणादि कर्मो की अकर्मरूप उत्तरपर्याय का ग्रहण करना सूत्रकार के आशय के विरुद्ध है ।"