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कार्योत्पत्ति का होना असंभव ही रहेगा । अर्थात् यह वात अनुभव सिद्ध है कि कार्य के प्रति उपादान और उसके सहयोगी सपूर्ण निमित्त मिलकर जब परस्पर अनुकूलता को प्राप्त हो जाते है तथा किसी भी प्रकार की बाधक सामग्री की उपस्थिति वहाँ नही रहती है तभी कार्य की निष्पत्ति देखी जाती है अन्यथा नही।
इस तरह यह वात स्पष्ट हो जाती है कि कार्योत्पत्ति मे उपादान कारण व निमित्त कारणो का सद्भाव और वाधक कारणो का अभाव रे सभी कार्यकारी हैं कोई भी अकिंचित्कर नहीं। इतना अवश्य है कि यद्यपि कार्य इन सबके सहयोग से ही होता है पर कार्य सब अपना-अपना ही करते हैं ऐसा नहीं है एक दूसरा एक दूसरे के कार्य को करने लगता हो । अर्थात् उपादान का कार्य कार्यरूप परिणत होना है अत वह कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त के सद्भाव तथा बाधक सामग्री के अभाव का कार्य उपादान की कार्यपरिणति मे सहयोग देना ही है अत. वे सहयोगी वन कर ही कृतार्थ हो जाते है ।
प० जगन्मोहनलाल जी ने अपने प्राककथन मे आगे चल कर पृष्ठ १३ पर "कार्योत्पत्ति मे निमित्तो का स्थान है इसका निषेध नहीं" इस वाक्य द्वारा कार्य के प्रति उपादान की तरह निमित्तो की उपयोगिता का भी समर्थन किया है, इसलिये निमित्त कारणो के विषय मे उनका यह लिखना कि “यह सब काथन उपचरित ही मानना चाहिये" अयुक्त ही समझ मे आता है कारण कि मेरे ऊपर लिखे कथन के अनुसार कार्योत्पत्ति में निमित्तो की स्थिति उपचरित अर्थात् असत्य या कल्पित न होकर वास्तविक ही सिद्ध होती है। ऐसी स्थिति मे निमित्तो की कार्यो