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और हम लोग भी परप्रत्यय कार्य का निषेध और स्वप्रत्यय कार्य का समर्थन करते है वेवल मतभेद इस बात मे कि प० फूलचन्द्र जी आदि स्व प्रत्यय और स्वपरप्रत्यय सभी कार्यो को जहाँ निमित्त को अकिञ्चित्कर मानकर केवल स्वप्रत्यय ही मानते हे वहाँ हम लोग स्वप्रत्यय कार्यों से पृथक ही स्वपरप्रत्यय कार्यों को स्वीकार करते हैं जैसा कि आगम से भी समर्थन होता है । अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार की गाथा' १४ मे पर्यायो (कार्यो) के दो भेद स्पष्ट स्वीकार किये है--एक स्वपरसापेक्ष और दूसरा निरपेक्ष । यहाँ निरपेक्ष का अर्थ परनिरपेक्ष या केवल स्वसापेक्ष हो लिया गया है। इस तरह स्वपरसापेक्ष का ही अर्थ स्वपरप्रत्यय और निरपेक्ष परनिरपेक्ष या केवल स्वसापेक्ष का ही अर्थ स्वप्रत्यय होता है। सर्वार्थ सिद्धि अध्याय ५ सूत्र ७ की टीका मे आचार्य पूज्यपाद ने भी कहा है कि उत्पाद दो प्रकार का होता है-एक स्वप्रत्यय और दूसरा परप्रत्यय । इसमे भी परप्रत्यय से स्वपरप्रत्यय ही अर्थ ग्रहण किया गया है।
इस विवेचन का प्रयोजन यह है कि श्रु तज्ञानी जीव केवल ज्ञान मे प्रतिभासित वस्तु पर्यायो की नियत स्थिति पर जब तक टिक नही जाता है अर्थात् उसका श्रु तज्ञान जब तक पूर्ण निर्विकल्पक दशा को प्राप्त नही हो जाता है जो कि ग्यारहवें और वारहवे गुण स्यानो मे ही सभव है तब तक उसको कार्य सिद्धि के लिए पुरुषार्थ करने का उपदेश आगम मे दिया गया है। छठवे गुणस्थान तक तो श्रु तज्ञानी जीव मे कार्य
१-पजाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो या णिरवेक्खो।। २-द्विविध उत्पाद -स्वनिमित्त परप्रत्ययश्च ।