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- जाते है उनके सम्बन्ध मे भी उक्त प्रकार का सोचना पागलपन को हो निशानी है क्योकि इस प्रकार के सोचने से अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम सभी का अपलोप होता है और कार्य सिद्धि की सभावना ही समाप्त हो जाती है । इसलिये जो सज्ञी पचेन्द्रिय जीव लौकिक अथवा पारमार्थिक जिस प्रकार की कार्य सिद्धि करना चाहता है उसे उस की सिद्धि के लिये "जब जो होना होगा सो होगा" इस मान्यता के झमेले मे न पड कर उसके अनुकूल उपादान और निमित्तो के सद्भाव व बाधक कारणो के अभाव पर ही दृष्टि रखना चाहिये तथा इसी आधार पर अनुकूल पुरुषार्थ करने का ही प्रयत्न करना चाहिये और यदि इन सब बातो का समन्वय हो जाता है तो कार्य सिद्धि नियम से होगी तथा उसी प्रकार के कार्य की सिद्धि होगी जिसके अनुकूल इन सब बातो का समन्वय हो जायगा ।
पूर्व मे मैने जो यह कहा है कि स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा को "पुवपरिणामजुत्त" इत्यादि गाथा का प० फूलचन्द्र जो ने अर्थ तो ठीक किया है परन्तु उसके अभिप्राय मे अन्तर पाड दिया है। अर्थात् उन्होने उसका यह अभिप्राय लिया है कि वस्तू जिस समय कार्याव्यवहित पूर्व पर्याय मे पहुँच जाती है तब उसमे एक नियत कार्य के उत्पन्न होने की योग्यता आ जाती है और तब वही कार्य नियम से उत्पन्न होता है। लेकिन यह अभिप्राय गलत है क्योकि "यच्चोच्यते"-इत्यादि प्रमेयकमल मार्तण्ड के पूर्वोक्त उद्धरण से व उपर्युक्त विवेचन से यही फलित होता है कि उस समय भी उसमे नाना योग्यताओ का सद्भाव सिद्ध होता है और जिस कार्य के अनुकूल वहा पर निमित्त सामग्री का सद्भाव और बाधक कारणो का अभाव