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कदाचित् बाधक सामग्री उपस्थित हो तो तब उक्त भव्यजीव का मुक्त होना तब तक असम्भव रहेगा जब तक वह बाधक सामग्री नही हट जायगी । इसके लिये निम्नलिखित दृष्टान्त पर ध्यान देना चाहिये ।
सूर्यकान्तमणि को यदि सूर्य के सन्मुख रख दिया जावे और उस पर से सूर्य की किरणो को यथायोग्य वस्तु पर फेंका जावे तो उस वस्तु मे अग्नि प्रज्वलित हो जाया करती है लेकिन सूर्यकान्त मणि के हटा देने पर जिस प्रकार उक्त वस्तु मे उपादानशक्ति रहते हुए भी अग्नि के प्रज्वलित होने की सम्भावना जाती रहती है उसी प्रकार सूर्यकान्तमणि के सद्भाव मे भी यदि बाधक कारण स्वरूप चन्द्रकान्तमणि की उपस्थिति वहा पर हो जावे तो भी उस वस्तु मे अग्नि का प्रज्वलित होना असम्भव हो जाता है |
इस प्रकार यह बात निश्चित हो जाती है कि यद्यपि उपादानभूत वस्तु ही अपनी योग्यता ( उपादानशक्ति ) के अनुसार कार्यरूप परिणत हुआ करती है परन्तु यदि उसकी वह कार्यरूप परिणति स्वपरप्रत्यय हो, तो उसका होना अनुकूल निमित्तो के सहयोग और बाधक कारणो के वियोग पर ही निर्भर रहा करता है । यही कारण है कि प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति विवक्षित कार्य की उत्पत्ति के लिये उपादानोपादेय भावरूप कार्यकारणभाव के साथ-साथ निमित्तनैमित्तिक भावरूप कार्यकारणभाव पर भी दृष्टि रखता हुआ उपादान के साथ कार्य के अनुकूल निमित्त सामग्री को जुटाने का भी प्रयत्न किया करता है । यह प्रक्रिया लौकिक और पारमार्थिक दोनो