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प्रयत्न नही करना पडता है ? और किस प्रकार का व्यवहार न तो कभी छूटता है और न उसे छोड़ने की आवश्यकता ही है ? इन प्रश्नो पर यहाँ विचार किया जाता है। इनमे से मैं सर्वप्रथम निश्चय और व्यवहार के रूपो का दिग्दर्शन करा रहा हूँ
निश्चय और व्यवहार के रूप आगम मे वस्तु को द्रव्य, गुण और पर्यायात्मक स्वीकार किया गया है जैसा कि पञ्चास्तिकाय के ज्ञेयाधिकार की गाथा १ मे पाया जाता है
अत्थो खलु दवमओ दव्वाणि गुणप्पगारिग भणिवाणि । तेहि पुणो पज्जाया पज्जयम ढा हि परसमया ||१||
अर्थ-~-वस्तु द्रव्यरूप है, द्रव्य गुण स्वरूप होता है और द्रव्य तथा गुण दोनो की पर्याये होती हैं ! जितने परसमय हैं वे सव पर्याय मे विमूढ हो रहे है अर्थात् पर्याय को ही सब कुछ मान रहे हैं।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु यद्यपि अखण्ड एकरूपता को प्राप्त हो रही है फिर भी उसमे आवश्यकतानुसार द्रव्य, गुण और पर्यायरूप से विभाजन भी विद्यमान है। इस प्रकार वस्तु की अखण्ड एकरूपता का नाम निश्चय है और द्रव्य, गुण तथा पर्याय के रूप मे भेद स्थिति का नाम व्यवहार है।
वस्तु के स्वत सिद्ध और प्रतिनियत स्वरूप की अखडता निश्चय कोटि मे आती है और उस स्वरूप की खण्डात्मक भेद स्थिति व्यवहार कोटि मे आती है। इसी आधार पर समयसार मे यात्मा के अखण्ड ज्ञायकत्वरूप स्वभाव को निश्चय कोटि में