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औपशमिक सम्यग्दर्शन और औपशमिक सम्यक् चारित्ररूप तथा क्षय मे क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यक् चारित्ररूप परिणतियाँ हुआ करती हैं । यहाँ इतना और जानना चाहिये कि यद्यपि ज्ञान का विकास ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से यथासम्भव मे अनादि काल से सभी जीवो मे पाया जाता है परन्तु इसमे दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यापन और उसके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से सम्यक्पन हुआ करता है । सामान्यरूप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से क्रमश क्षायोपशमिक ज्ञान, क्षायोपशमिक दर्शन और क्षायोपशमिक वीर्य रूप जीव की परिणतियाँ हुआ करती हैं तथा इनके क्षय मे क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन और क्षायिक वीर्य रूप परिणतियाँ जीव की हुआ करती है । जीव की ऐसी ही परिणतियाँ अन्तराय कर्म के भेद दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से व क्षय से भी हुआ करती हैं और इनके अतिरिक्त आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों के उदय में औदयिक रूप व क्षय मे क्षायिकरूप परिणतिया भी जीव की हुआ करती हैं । विशेष रूप से अवधिज्ञानावरण, मन पर्ययज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण कर्मो के उदय में औदयिक अज्ञान रूप तथा अवधिदर्शनावरण और केवल दर्शनावरण कर्मों के उदय में औदयिक अदर्शन रूप परिणतिया भी जीव की हुआ करती हैं ।
जीव की ये सभी औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक क्षायिक परिणतियाँ चूँकि उस उस कर्म के यथायोग्य उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षय की अपेक्षा रखती है अत समान रूप से व्यवहार कोटि मे समाविष्ट होती है । लेकिन इनमे से औदयिक परिणतियाँ ससार की कारण या जीव के