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२१६ करता हुआ दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित ' होकर मिथ्यात्व ( मिथ्यादर्शन ) और अज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) के रूप मे परिणमन कर रहा है।
इसी प्रकार जीव की स्वभावभूत क्रिया शक्ति की जो मन, वचन और काय की अधीनता मे योगात्मक स्थिति अनादि काल से बनी हुई है उसका भी चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के प्रभाव से अविरत ( मिथ्या चारित्र ) रूप परिणमन हो रहा है। इस प्रकार जीव की ज्ञानोपयोगरूपता को प्राप्त भाववती शक्ति और योगरूपता को प्राप्त क्रियावती शक्ति दोनो हो जब यथायोग्य मिथ्यात्व ( मिथ्यादर्शन ), अज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) और अविरति ( मिथ्या चारित्र ) रूप परिणमन अनादिकाल से करतो आ रहा है तो उनके इन परिणमनो के आधार पर जोव के साथ पोद्गलिक कार्माणवर्गणाये बद्ध होकर मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति रूप परिणमन अनादि काल से सतत करती आ रही हैं। समयसार कर्तृकर्माधिकार की ८७, ८८ और ८६ सख्याक गाथाओ मे जोव की स्वभावभूत भाववती तथा कियावती शक्तियो व कर्माणवर्गणाओ के इन्ही परिणमनो का प्रतिपादन किया गया है।
___ यद्यपि जीव की भाववती और क्रियावती शक्तियो व । कार्माणवर्गणो का यथायोग्य उपर्युक्त मिथ्यात्व, अज्ञान और
अविरतिरूप परिणमन एक-दूसरे के सहयोग से अनादिकाल से होता आ रहा है परन्तु जीव को ज्ञानोपयोगरूप भाववती शक्ति का मिथ्यात्व और अज्ञान रूप तथा योगात्मक क्रियावती शक्ति का अविरति रूप परिणमन न हो तो इसके लिए जीव को आगम मे यह उपदेश दिया गया है कि वह ऐसे साधन जुटाने