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निश्चय धर्म का कदापि कारण नही होता है। यदि भव्य मिथ्यादृष्टि जीव इस पुण्याचरण को अपनाता है तो वह इसके बल पर क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि के प्राप्त कर सम्यग्दर्शन को भी प्राप्त कर सकता है। इस तरह इस पुण्याचरण को सम्यग्दर्शन की कारणता के आधार पर उपचरित व्यवहार धर्म भी कह सकते हैं। यद्यपि सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर जीव अनन्तानुवन्धी कषाय का उपशम या क्षय हो जाने के कारण सङ्कल्पी पापो का त्यागी हो जाता है परन्तु अशक्तिवश आरम्भी पापो का किचिन्मात्र भी त्याग करने में वह असमर्थ रहता है अत उसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है.। लेकिन यदि यही जीव अप्रत्याख्यानावरणादि कषायो के अनुदय के आधार पर यथायोग्य आरम्भी पापो का भी त्याग कर देता है तो वह वास्तविक ( सद्भूत ) व्यवहार धर्मात्मा हो जाता है। वास्तविक व्यवहार धर्म के रूप में यह प्रक्रिया दशम गुणस्थान तक चला करती है क्योकि कषाय का उदय यथासम्भव रूप मे दशम गुणस्थान तक रहने के कारण वह जीव पूर्णरूप से आरम्भी पापो का त्यागी नही हो पाता है और चकि दशम गुणस्थान के अन्त समय मे कषाय का पूर्णतया या उपशम या क्षय हो जाता है अत वह एक ओर तो व्यवहार धर्म की पूर्णता प्राप्त कर लेता है व दूसरी ओर इसी व्यवहारधर्म के आधार पर एकादश व द्वादश गुणस्थान में वह क्रमश. औपशमिक व क्षायिक रूप मे यथाख्यान चारित्र को प्राप्त होकर आत्मलीनता रूप निश्चय सम्यक् चारित्र का धारक बन जाता है।
इस तरह चरणानुयोग की दृष्टि से विचार किया जाय तो अशुभ पुरुषार्थ अर्थात् पापाचरण व्यवहार सर्वथा हेय है, शुभ