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"ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय से केवल ज्ञान प्रगट होता है" कथन के तथ्याश को सिर्फ शास्त्रकारो द्वारा अपनायी गई व्याख्यान की शैली मात्र कह कर टाला नही जा सकता है ।
मेरे इस विवेचन से प० फूलचन्द्र जी का यह कथन कि "यहाँ पर जीव की केवल ज्ञान पर्याय प्रगट होने का जो मुख्य हेतू उपादान कारण है उसे तो गौण कर दिया गया है और जो जीव की मतिज्ञान आदि पर्यायो का उपचरित हेतु था उसके अभाव को हेतु बनाकर उसकी मुख्यता से यह कथन किया गया है" सुतराम खण्डित हो जाता है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानावरणादि कर्मों को मतिज्ञान आदि पर्यायो का उपचरित हेतु मानकर व उसके अभाव को केवल ज्ञान की उत्पत्ति मे हेतु बनाकर उसकी मुख्यता से कथन करने का यहाँ पर प्रयोजन क्या है ? और पण्डित का ऐसा लिखना क्या सगत है ? यह बात मैं पण्डित से पूछना चाहता हूँ। हालाकि उन्होने जैनतत्त्वमीमासा के पृष्ठ २१ पर यह सकेत किया है कि "सुगमता से इष्टार्थ का ज्ञान कराने के लिए ही यहाँ पर सूत्रकार ने उल्लिखित ढग से कथन करना उचित समझा है" फिर भी सूत्रकार के कथन मे इस प्रकार की असगत द्रावडी प्राणायाम की कल्पना करके प० फूलचन्द्र जी द्वारा सन्तोष कर लिए जाने पर भी मैं कहूँगा कि सूत्रकार ने उल्लिखित सूत्र वाक्य में ज्ञानावरणादि कर्मो के क्षय और केवलज्ञान मे निमित्त नैमितिक भाव नही बतलाकर सिर्फ सुगमता के साथ इष्टार्थ का ज्ञान कराने के लिए ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय केवलज्ञान की प्रगटता के अवसर पर मौजूद रहने के कारण इन दोनो मे कार्यकारणभाव का आरोप मात्र करके कथन भर कर दिया है