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की उत्पत्ति के अलावा और कोई वस्तु नही है । इस आधार से पण्डित जी के इस कथन का भी कोई महत्व नही रह जाता है कि "अभाव को कार्योत्पत्ति मे निमित्त मानने से अभावात्मक खरविपाण या आकाश कुसुम को भी कार्योत्पत्ति मे निमित्तता प्रसत्त हो जायगी,” क्योकि मेरे उक्त कथन से केवल ज्ञान की उत्पत्ति मे ज्ञानावरणादि कर्मों की कर्मपर्याय के नाश से प्रगट होने वाली उनकी अकर्मरूप सत्तात्मक उत्तर पर्याय ही निमित्त ( सहायक ) सिद्ध होती है । यहाँ पर यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानावरणादि कर्मों की अकर्मरूप उत्तरपर्याय जीव के साथ वद्धता रूप स्थिति की समाप्ति होकर पृथक् स्थिति का निर्माण हो जाना ही है क्योकि ज्ञानावरणादि कर्म कर्मरूप तभी तक रहते हैं और तब तक नियम से रहते हैं जब तक वे जीव के साथ बधे रहते हैं इसलिये जब उनका जीव के साथ विद्यमान वध का विच्छेद होता है तो वे अपनी कर्मरूपता को नियम से छोड देते 1
पण्डित जी का यह तर्क कि "अभाव को कार्योत्पत्ति मे निमित्त मानने से अभावात्मक खरविपाण या आकाश कुसुम को भी कार्योत्पत्ति मे निमित्त मानना पडेगा" गलत है कारण कि जैनदर्शन मे प्रागभाव, प्रध्वसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव - इन चारो प्रकार के अभावो को समान रूप से भावान्तर स्वभाव ही माना गया है । अर्थात जैन दर्शन की मान्यता मे ऐसा एक भी अभाव नही है जिसमे भावान्तर स्वभाव रूपता न पायी जाती हो । जिन खरविषाण और आकाश - कुमुम रूप अभावों का उल्लेख पण्डित जो ने अपने मन्तव्य मे इस प्रसग मे किया है उनमे से खरविषाण रूप अभाव खर की विषाणरहित स्थिति तथा आकाश कुसुम रूप अभाव भी