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है— के निमित्त ( सहयोग ) से होते हैं और चकि इस प्रकार के योग का सद्भाव जीव मे प्रथम गुणस्थान ने लेकर त्रयोदश गुणस्थान तक रहा करता है अत उन गुणस्थानो मे विद्यमान जीव सतत यथायोग्य पाप कर्मों या पुण्य कर्मों से प्रभावित योगो की अशुभम्पता या शुभस्पता की तरतमता के आधार पर उक्त कर्म प्रकृतियो मे से यथासम्भव कर्म प्रकृतियों के प्रकृतिवन्ध और प्रदेशवन्च किया करता है। उन दोनो प्रकार के बन्धो के अतिरिक्त वही जीव उक्त कर्म प्रवृतियों के जो स्थितिवन्ध और अनुभागवन्च किया करता है वे स्थितिवन्य और अनुभागबन्ध मोहनीय कर्म के यथायोग्य उदय के आवार पर जीव के स्वभावभूत दर्शन, ज्ञान और चरित्र को मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप परिणतियों के सहयोग से ही होते हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म के तरतमस्प प्रभाव के आधार पर यथासम्भव जिन जिस गुणस्थान मे जिम-जिम म्प मे जीव का पुरुषार्थ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप हुआ करता है उसके अनुसार वह जीव उक्त प्रकार प्रकृति और प्रदेशम्प से बद्धज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिबन्ध और अनुभागवन्च किया करता है । चकि मोहनीय कर्म का उदय जीव मे यथासम्भव रूप मे दशम गुणस्थान तक ही रहा करता है अत कर्मों के उक्त स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध भी जीव मे यथासम्भव रुप मे दशम गुणस्थान तक ही हुआ करते हैं । इन सब बातो का विवेचन कर्म ग्रन्थो मे विस्तार के साथ किया गया है ।
जिस प्रकार मोहनीय कर्म के उदय के आधार पर जीव के स्वभावभूत दर्शन, ज्ञान और चारित्र की मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचादित्ररूप परिणति हुआ करती है।