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२०६ और सम्यक् प्रकृति नाम को तीन व चारित्र मोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियो का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है उस जीव को सर्व प्रथम तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप व्यवहार सम्यग्दर्शन
और आगम ज्ञानरूप व्यवहार सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि साथसाथ-साथ होती है और इसके पश्चात् आत्मतत्त्व के प्रति अपनत्त्व रूप निश्चय सम्यग्दर्शन व आत्मज्ञान रूप निश्चय सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि भी उस जीव को साथ-साथ होती है । यहाँ यह वात स्पष्ट करने की है कि जीव मे आगमज्ञान और आत्मज्ञान तो सम्यग्दर्शन होने से पूर्व ही रहा करते है अन्यथा उसे सम्यादर्शन की उपलब्धि होना असभव हो जायगा । अतः जीव को सम्यग्दर्शन के साथ मे ही जो सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होना आगम मे बतलाया गया है उसका आशय यह है कि सम्यग्दर्शन होने पर ही जीव का आगमज्ञान व आत्मज्ञान सम्यक्पन का रूप धारण करता है इसके पूर्व नही।
जीव को जव उक्त प्रकार के सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है तब अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव हो जाने से उसके साथ ही उस जीव की वृत्ति और प्रवृत्ति मे हिसादि पाँचो पापो की सकरपरूपता समाप्त हो जाने पर अन्याय, अत्याचार, उच्छ बलता, स्वार्थपरता और आसक्ति आदि दोपो का रूप समाप्त होकर न्याय, सदाचार, समता, परोपकार और अनासक्ति आदि सद्गुणों के रूप का प्रादुर्भाव हो जाता है। इस तरह तव उसकी प्रवृत्तियो मे जो हिसादि पापो की पट दिखाई देती है उसका कारण उसकी जीवन सम्बन्धी अगक्ति पर आधारित आवश्यकता ही हुआ करता है । अर्थात् वह जीव यद्यपि हिंसादि पापो से छुटकारा नहीं पा पाता है