________________
२१०
फिर भी उसकी वे हिंसादि पाप प्रवृत्तियाँ इसदतन ( सकल्प पूर्वक) न होकर मजबूरीवश ही हुआ करती हैं । जैनागम मे हिसादि पाँचो पापो को जो सकल्पी और आरम्भी - ऐसे दो-दो भेदो मे विभक्त किया गया है वह इसी अभिप्राय से किया गया है ।
इस तरह जीवन की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए अशक्तिवश हिंसादि आरम्भी पापो को करता हुआ भी वह जीव पुण्य कर्मों के उदयानुसार देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, सयम, तप और दानरूप पुण्याचरण के भी कार्य किया करता है जिनके बल पर वह आगे चल कर क्रमश अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायो का अनुदय ( उदयाभाव अर्थात् इनके वर्तमान मे उदय आने योग्य निषेको का उदया भाषो क्षय और आगामी काल मे उदय आने योग्य निपेको का सदवस्थारूप उपशम ) करता हुआ व इसके भी आगे सज्वलन कपाय के तीव्र अनुभाग को उत्तरोत्तर कृश करता हुआ अन्त मे उक्त अप्रत्याख्यानावरणादि सभी कषायो और नव नोकपाओ का उपशम अथवा क्षय करने में समर्थ हो जाता है ।
इसमे समझने की बात यह है कि प्रत्येक जीव की अनादि काल से ज्ञान रूप से विकसित उपयुक्ताकार रूप भाववती शक्ति का जो दर्शन मोहनीय कर्म के उदय के आधार पर मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान रूप परिणमन हो रहा है तथा योगस्थति को प्राप्त क्रियावती शक्ति का जो चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के आधार पर मिथ्याचारित्र रूप परिणमन हो रहा है यही उसके (जीवके) लिए ससार का कारण वन रहा है । लेकिन जिस जीव म थाक्रम से उक्त दर्शन मोहनीय कर्म और चारित्र मोहनीय